चेरी पर टिके ओसकणों को
तू पोंछ डालती है अपने लहराते बालों से
और जल्‍लाद के ठहाकों के बीच से निकल आता है
वह जिसकी रुकती नहीं है हँसी।

कभी चुप बैठ जाती हो
काली आँखों वाली भविष्‍यवाचिका की तरह,
कभी विशालकाय हाथी के दाँत पर
बैठी होती हो ठहाके लगाती जलपरी की तरह।

दे बैठा था वह जान इन दाँतों से भिड़ते हुए
दिखाई दे रहा है वही खोर्स* आकाश में
मूसलाधार बारिश ने उसे जीवित देखा था
अब वह मिट्टी का ढेला है जमा हुआ।

यहाँ गरमी के मौसम की तरह नाजुक उछलती हो तुम
चाकुओं के बीच उज्‍जवल लपटों की तरह
यहाँ आर-पार गुजरते तारों के बादल हैं
और मृतकों के हाथ से गिर पड़ी है ध्‍वजा।

काल के प्रवाह को तेज किया तुमने
जल्‍दी-जल्‍दी सजा सुना रही हो जल्‍लाद को।
और यहाँ गोलीबारी का शिकार –
खून से लथपथ पड़ा है जीवन का कछुआ।

यहाँ लाल हंसों की झिलमिलाहट
चमकती है नए पंखों की तरह
वहाँ बूढ़े जार के समाधि-लेख को
ढक रखा है रेत ने।

यहाँ घोड़े के बच्‍चे की तरह स्‍वच्‍छंद
कूदती हो तुम सात-सात पंखों वाली राह पर,
यहाँ रक्‍ताभ राजधानी को आखिरी बार
जैसे धीरे-से कहती हो ‘क्षमा करना’।

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(खोर्स : स्लाव पुराकथाओं में सूर्य देवता का एक नाम)