यू ट्यूब पर तुम 
कभी सोहर 
कभी छठ 
कभी पुरानी फिल्मों के गाने खोज रही हो 
यह तुम्हारा अकेलापन है 
जहाँ तुम मेरा होना ढूँढ़ती हो

मैं चित्रों लकीरों शब्दों और रंगों में 
ढूँढ़ रहा हूँ तुम्हें 
जबकि हम यहीं हैं इसी कमरे में एक साथ 
इस पार्थिव समय में 
एक अपार्थिव एकांत हमारे साझे निर्जन से उग रहा है

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इस शून्य में हम एक दूसरे को बनाते हैं 
और उसे ही पुकारते हैं 
आखेट पर होते हैं अपनी मरीचिकाओं में

और जंगल यह घना होता जाता है 
रास्ते दुर्गम 
कबाड़ के इन पहाड़ों से जो धुंध उठती है 
उसमें कई बिंब हैं 
समय की सिकुड़ती कमीज़ की जेब में 
ठूँस ठूँस कर भरी गई संभावनाओं के 
शातिर स्थितियों की बल खाती बिसात पर

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अम्ल की महीन बरसातों में

साझा सुकुमार शून्य 
अजीब कल्पित इच्छाओं से 
आक्रांत हुआ जाता है

भर जाता है खालीपन 
हमारी नहीं-हुई की संभावनाओं से