यह साँसत | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
यह साँसत | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

यह साँसत
लगता है
संकट बन जाएगी

खामोशी यह
भारी पड़ेगी
कहीं-न-कहीं

बहुत व्यवस्थित होने का दवाब
बिखरा देता है
अधिक

आती हैं
इतनी मुश्किलें
कि उपाय –
गड्डमड्ड होने लगते हैं

होता है क्यों ऐसा
कि पता नहीं चलता
समय का सही अर्थ
और सूझते नहीं
शब्द –
कुछ कहने के लिए?

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