यह गली | प्रेमशंकर मिश्र

यह गली | प्रेमशंकर मिश्र

यह गली
जो रोज मेरी खिड़की से होकर गुजरती है
बरबस नींद तोड़ देती है।

जाड़ा गर्मी बरसात
ठीक तीन बजे
हर ब्रह्मबेला के धुप अंधेरे में
अपनी पीठ पर संसार लोदे
ये मनहूस मोटे गधे
मालिक के हर थप-थप पर
अपने अल्‍लाह को याद करते हैं
और मेरे सपनों की भाँवर
रोज पूरी होते-होते रह जाती है।

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यह गली
वैसे तो आगे चलकर
सदर सड़क से मिलती है
लेकिन ठीक बिजली के खंभे के नीचे
(जहाँ गली और सड़क मिलती है)
एक खाँई है
जो
अनजाने को कौन कहे
कभी-कभी मुझे भी धोखा देती है
वेगवती साइकिल फँस जाती है
डायनमों फेल हो जाता है
और हाथ से सरक कर
सारी फाइलें तैरने लगती हैं।

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यह गली
और इसके आगे वाली खाँई
मेरी सबसे बड़ी समस्‍या है
क्‍योंकि
अव्‍वल तो यह दोनों
पूरे मुहल्‍ले के
अपने-अपने ढँग से निकास हैं
जिन्‍हें मैं अपने लिए नहीं बंद कर सकता,
दूसरे

गली, गधे, सपने, बिजली, सड़क और खाँई
सारे बिंदुओं को मिलाने से
एक ऐसी बेहूदी शक्‍ल बनती है
जिससे कोई भी प्रोजेक्‍ट नहीं बन पाता
केंद्र बिंदु को
हर क्षण हटाना पड़ता है।
लेकिन
चूँकि कुल मिलाकर एक जिंदगी बनती है
इसलिए
इससे भागा भी नहीं जा सकता
हल क्‍या होगा
वक्‍त ही जाने।

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