वह अनजान आप्रवासी | अभिमन्यु अनत

वह अनजान आप्रवासी | अभिमन्यु अनत

आज अचानक हवा के झोंकों से
झरझरा कर झरते देखा
गुलमोहर की पंखुड़ियों को
उन्हें खामोशी में झुलसते छटपटाते देखा
धरती पर धधक रहे अंगारों पर
फिर याद आ गया अचानक
वह अनलिखा इतिहास मुझे
इतिहास की राख में छुपी
गन्ने के खेतों की वे आहें याद आ गयीं
जिन्हें सुना बार-बार द्वीप का
प्रहरी मुड़िया पहाड़ दहल कर काँपा
बार-बार डरता था वह भीगे कोड़ों की बौछारों से
इसलिए मौन साधे रहा
आज जहाँ खामोशी चीत्कारती है
हरियालियों के बीच की तपती दोपहरी में
आज अचानक फिर याद आ गये
मजदूरों के माथे के माटी के वे टीके
नंगी छाती पर चमकती बूँदें
और धधकते सूरज के ताप से
गुलमोहर की पंखुड़ियाँ ही जैसे
उनके कोमल सपने भी हुए थे
राख आज अचानक

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गंगा की स्वर-लहरी को सुन
फिर याद आ गया मुझे वह काला इतिहास
उसका बिसारा हुआ वह अनजान आप्रवासी देश के
अंधे इतिहास ने न तो उसे देखा था
न तो गूँगे इतिहास ने कभी सुनाई उसकी पूरी कहानी हमें
न ही बहरे इतिहास ने सुना था
उसके चीत्कारों को
जिसकी इस माटी पर बही थी
पहली बूँद पसीने की
जिसने चट्टानों के बीच हरियाली उगायी थी
नंगी पीठों पर सह कर बाँसों की
बौछार बहा-बहाकर लाल पसीना
वह पहला गिरमिटिया इस माटी का बेटा
जो मेरा भी अपना था तेरा भी अपना।

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