उसी की तरह | प्रेमशंकर शुक्ला
उसी की तरह | प्रेमशंकर शुक्ला

वह आँचल पसारती है
सूर्य के सामने
प्रतिदिन नहाने के बाद
बुदबुदाती है अपनी मनौती
कि घर में सब ठीक रहे
हालाँकि सब ठीक कहाँ रहता है?

अचानक आए दुख में
जब सब घर सिहर रहा होता है
तब वह खोल रही होती है –
अदम्य-आशा की अपनी पोटली
बँधा रही होती है ढाँढ़स,
चुपचाप हमारे माथे पर अपना हाथ रख
हम खीझते हैं कि इसका धीरज टूटता क्यों नहीं
मानती क्यों नहीं कि जैसा वह सोचती है वैसा नहीं होने का

READ  छोटा शहर | अनूप अशेष

बटलोई में रखे अदहन की तरह
भीतर ही भीतर खदबदाती होगी उसकी कोख
पर दिखती निर्विकार है
छिपाती है वह अपना दुख अपनी भीगी आँखें
इसके लिए कि हमारा धीरज बना रहे
उस पर सोचते हुए लगता है
कि दुख-पराजय या पीड़ा में
क्या सचमुच हम टूटते हैं
उसके जितना ही या उसी की तरह।

READ  जल की अपराधी | नीलेश रघुवंशी

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *