उड़ान | प्रीतिधारा सामल
उड़ान | प्रीतिधारा सामल

उड़ान | प्रीतिधारा सामल

उड़ान | प्रीतिधारा सामल

कभी-कभी पतंग उड़ाने को मन करे
स्वयं पतंग बन उड़ती आकाश में
दो स्वप्नप्रवण आँखें
सीमाहीन व्याप

नरम-नरम घास के मैदान में हिरण का छौना
फुदकती फिरती नरम धूप
सो रहा शिशु चौंक जाग जाता

मैं हाथ बढ़ाती
आकाश सरक-सरक जाता दूर
सिर पर पक्षी, हवाई जहाज
मैं बँधी हूँ लटाई से, याद आ जाता

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पीछे छोड़ आई पुराने दिन पुरानी रात
पुरानी नींद, पुराने स्वप्न
पुराने दुख, पुराने दर्द
पुराने गीत, पुरानी धरती

पहन लेती एक नया अनुभव
उदरस्थ करती अफीम-सा
फूल उठती बेलून-सी
बज्र को अस्त्र कर
निरीह मेघ को शब्द
नीरवता होती मेरा प्रतिवाद

नील शून्य के केनवास पर
लिखती कविता, चित्र आँकती
मरण को जैसे माँगती, अमरत्व को भी

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हे मेरे सुंदरतम पल
मैं क्या प्यासे के लिए अँजुरी भर जल
भूखे पेट के लिए मुट्ठी भर अन्न
आतुर आँखों के आँसू
शून्य शून्य महाशून्य परिचयहीन

लटाई का धागा खींच लाता
पुराने निर्मोक की ओर
चौंक उठे शिशु को थपथपा सुला देती
ना ना बंदी न करो मुझे मेरी परिधि में
आकाश न छू सकूँ, न सही
कभी कभी पतंग बन
उड़ने दो आकाश में

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