तुम्हारी याद | आरसी चौहान

तुम्हारी याद | आरसी चौहान

खनकाती हुई चूड़ियाँ
जब चूड़िहारिन घूमती है
दर-ब-दर
और लगाती है पुकार
आने लगती है
ज्वार की तरह तुम्हारी याद बनिहारिनें गाती हैं
धान के खेतों में इठलाती हुई
सोहनी गीत
और धानी चुनरी ओढ़कर धरती
लहराने लगती लहँगा लगातार
मानो आसमान से मिलने का
कर रही हो करार
आने लगती है तु
म्हारी याद
किलकारियाँ भरते बच्चों के
कोमल होठों की तरह
नवीन पत्तियाँ
बिहँसने लगती हैं अमराइयों में
और बौरों की भीनी-भीनी
महक से
मदमाती कोयलें बरसाने
लगती हैं
मनमोहक गीतों की फुहार आने लगती है
तुम्हारी याद
अलियों का गुंजन विहगों का कलरव तितलियों का इतराना बिछुड़े हुए कबूतरों का
मिलते ही चोंच लड़ाना
भरने लगती हैं
मुझमें नव संचार
आने लगती है तुम्हारी याद
सलिला के कल कल
निनाद पर
जब लेते चुंबन तट बार-बार
और उन्मत्त पवन छू लेता है
उसकी छाती का अग्र भाग
आने लगती है तुम्हारी याद
पहाड़ियाँ लेटी हुई
करती हैं प्रतीक्षा
मखमली घास पर होकर अर्द्धनग्न
और लिपट जाने को आतुर हैं
व्याकुल बादलों की बाजुओं में
बेरोक-टोक
और टूट कर विखर जाना
चाहती हैं
तार-तार
आने लगती है
तुम्हारी याद
वेदना की लहरें उठने लगती हैं
हृदय सागर में सुनामी की तरह
जब मैं सुनता हूँ
हवा में गूँजती हुई तुम्हारी अंतिम हँसी
और देखता हूँ
साँस की देहरी पर
बैठा हुआ तुम्हारा बेरोजगार बाप
निहारता है
यदा-कदा
उस जंग खाए पंखे को कि
तुम लटक रही हो निराधार
आने लगती है
तुम्हारी याद
लेकिन मैं कभी नहीं लौटूँगा
घायल भाटे की तरह
तुम्हारी यादों की हवेली से
होकर छिन्न-भिन्न ।

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