तुमसे नहीं | प्रेमशंकर मिश्र
तुमसे नहीं | प्रेमशंकर मिश्र

तुमसे नहीं | प्रेमशंकर मिश्र

तुमसे नहीं | प्रेमशंकर मिश्र

तुमने
मेरा हाथ झटक दिया
सो तो सही है
पर उस भंवर का क्‍या होगा
जो इस रेत की नदी को
नए सिरे से
नम करने की कोशिश में
एक एक कर
अपनी सारी आवृत्तियाँ
खोती जा रही है।

पतंगों को
अपने डोर में बाँधना
ऊपर नीचे
दाएँ बाएँ
गोते खिलाना
फिर मुस्‍कुराकर
पोर से बंधे सपनों को
सुआपंखी नयनों सो कुपुट देना
गो ऐसा कुछ नहीं है

जो फितरत से परे हो
फिर भी
मन बहलाने के लिए
किसी चोट खाए पंछी की हत्‍या
अपने खुद के भविष्‍य की
हत्‍या नहीं है क्‍या?
बीरान
दो तिहाइ
सूखी बियाबान राह
अपने ही रक्‍त से सिंची
फल फूल विहीन
नीली हरियाली के बीच
होंठ चाटते
काट दी थी मैंने;
इन झुंड सारे हरामी कुत्‍तों के बीच पड़ी
पकी मिट्टी की मूरत पर
नए सिरे से
नयनाभिराम
नया रंग चढ़ाने वाला
एक हब्‍शी अह्म्
उसी आईने में
मुँह चिढ़ाता है
जिस पर
नई पॉलिश फेरने में
वर्ष वर्ष रात
मैंने क्‍लोरोफार्मी जिंदगी जिया है
अमृत में जहर मिलाकर
घूँट-घूँट पिया है।

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विधि-निषेध
यम नियम बंधन
लोहा तांबा कुंदन
सब को पाकर
अगली फसल को

इन कीड़ों से बचाने के लिए
एक बिल्‍कुल नए योग का
रायायनिक खाद दिया है।

आस पड़ोस के लोग
खासकर महिला
कहीं जाने वाली औरतों से
मैं माफी चाहता हूँ
क्‍योंकि
तन बदन से चिपटा
यह गुमनाम लबादा
मेरी अपनी ही बू में
सड़ सीझ कर
एक अजनबी बदबू बिखेर रहा है;
कमजोरी बढ़ती जा रही है
अब और अधिक देर तक
शायद मैं इसे बर्दाश्‍त न कर सकूँगा
मैं अब बिल्‍कुल नंगा हुआ चाहता हूँ।

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अपनी इस खुदकुशी को समझने के लिए
किसी फिल्‍मी चिट्ठी की जरूरत नहीं है
मुझे
अपने हाथों
अपने मुँह पर तमाचा मारना
थूकना
या पेशाब करना
सबका फोर्स
करीब करीब बराबर है।

इतने दिनों से
रोज बनते बिगड़ते घरौदों के
एक एक तार लेकर
मैं अपनी ही रची हुई झुग्‍गी में

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आज

खुद आग लगा रहा हूँ
सिर्फ एक मुट्ठी रोशनी के लिए।

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