तुम रहे हो द्वीप जैसे
तुम रहे हो द्वीप जैसे

तुम रहे हो द्वीप जैसे, मैं किनारे-सा रहा,
पर हमारे बीच में है सिंधु लहराता हुआ।

शीश काटे शब्‍द रहते हैं तुम्‍हारे होंठ पर,
लाख चेहरे हैं मगर मेरी अकेली बात के,
दिन सुनहले हैं तुम्‍हारे स्‍वप्‍न तक उड़ते हुए,
पंख हैं नोंचे हुए मेरी अँधेरी रात के,
सिर्फ मेरी बात में शाकुंतलों की गंध है,
तुम रहे खामोश, मैं हर बात दुहराता हुआ।

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छेड़कर एकांत मेरा शक्‍ल कैसी ले रहीं,
लाल-पीली सब्‍ज यादों से तराशी कतरनें,
ला रहीं कैसी घुटन का ज्‍वार ये पुरवाइयाँ,
तेज खट्टापन लिए हैं दोपहर की फिसलनें,
भीगता हूँ गर्म तेजाबी लहर में दृष्टि तक,
वक्‍त गलता है तपी बौछार छहराता हुआ।

शोर कैसा है, न‍ जिसको नाम मैं दे पा रहा,
है अजब आकाश, ऋतुएँ हो गई हैं अनमनी,
झनझनाती हैं जेहन मेरा लपकती बिजलियाँ,
एक आँचल है मगर, बाँधे हुए संजीवनी,
थरथराती भूमि है पाँवों-तले, पर शीश पर
टूटता आकाश है घनघोर घहराता हुआ।

चाँदनी तुमने सुला दी विस्‍मरण की गोद में,
बात हम कैसे रुपहली यादगारों की करें,
एक दहशत खोजती रहती मुझे आठों प्रहर
लहकते रंग से गमगीन रँगोली भरे?
तुम रहे हर एक सिहरन को विदा करते हुए,
मैं दबे तूफान अपने पास ठहराता हुआ।

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मैं न पढ़ पाया कभी संयम-नियम की संहिता,
मैं जिया कमजोरियों से, आँसुओं से, प्‍यार से,
साथ मेरे चल रहा है काल का बहरा बधिक,
चीरता है जो मुझे हर क्षण अदेखी धार से,
देवता बनकर रहे तुम वेदना से बेखबर,
मैं लिए हूँ घाव पर हर घाव गहराता हुआ।

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