मैं बार-बार रोता हूँ
पर होता कुछ नहीं है
न भीतर –
न बाहर

फिर उसी जगत-जंजाल में लग जाता हूँ
जिसे मानता हूँ निरर्थक
फिर उसी के साथ मिलता हूँ

जिसे देखना नहीं चाहता
फूटी आँख
जिस से घृणा करता हूँ
उस से घृणा नहीं करता (हूँ) का
करता हूँ अभिनय

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मेरे बचपन के दोस्त सूरज!
अपनी आग सहेजना है कितना कठिन
तुम्हारे में तो असीम सामर्थ्य है

मैं बोलता हूँ बहुत
पर कहना रहा आता है हरहमेश

अभी मुकम्मल चीन्हा नहीं गया है
चुप्पियों का मिजाज

कहने के अंदाज के लिए
पसीना बहाना पड़ता है बहुत
तोहफे में कहाँ मिलती हैं
कविताएँ

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