तितली की प्र‍तीक्षा | लीलाधर जगूड़ी

तितली की प्र‍तीक्षा | लीलाधर जगूड़ी

मेरे हाथों के तोते और मेरे मन के घोड़े
दोनों ने ही मेरे छक्‍के छुड़ा दिये हैं
इसीलिए तोते मैंने उड़ा दिये
और घोड़े दौड़ा दिये हैं।

दूर तक घसीटे जाने से लहू-लुहान पड़ा हूँ
तोते आकाश से होकर जंगल की ओर चले गये
जंगल में पिंजड़े की तरह फँसे हुए आकाश में
पूरे जंगल में हरा रंग फैलाकर

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सौ तरह का हरा रंग फैला है चारों ओर
उसमें से तोतई हरा ढूँढ़ पाना मुश्किल है
अगर मिल भी जाये तो जरूरी नहीं
कि वहाँ तोते भी हों
मेरे उड़े हुए तोतों ने मुझे मुश्किल में डाल दिया है

घोड़े बँधे हुए थे
अनंत दौड़ के बँधे हुए पैरों की तरह
ज्‍यों ही मैंने उन्‍हें छुट्टा छोड़ा
वे जाना हुआ एक-एक रास्‍ता छोड़ते चले गये

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वे पहले खेतों की ओर से अदृश्‍य हुए
फिर पार कर गये जंगलों को
एक दूसरे से भी
वे बँधे हुए नहीं रहना चाहते थे
क्षितिज रेखाओं को तोड़ते हुए
वे चले गये दिशाओं की ओर
इस समय उनमें से कुछ
दिशाओं के उद्गम पर पानी पी रहे होंगे

मेरे तोते मेरे हाथों से दूर
मेरे घोड़े मेरे मन से भी दूर चले गये हैं
ऐसे में मुझे एक तितली की प्रतीक्षा है
जिसकी चंचलता थोड़ी देर के लिए ही सही
स्थिर कर दे मुझे मेरी तल्‍लीनता में।

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