थोड़ी बहुत मृत्यु | नरेंद्र जैन

थोड़ी बहुत मृत्यु | नरेंद्र जैन

मृत्यु आई और कल मेरी कहानी के एक पात्र को 
अपने संग ले गई 
अक्सर उसके घर के सामने से गजरते हुए 
मैं उधर देख लिया करता था 
अर्से से वह दिखा ही नहीं 
एक दिन कहा किसी ने कि वह बीमार है गंभीर रूप से 
उससे मिलने के लिए थोड़ा बहुत साहस जरूरी था 
जो मैंने अपने आप में न पाया

अंततः एक दिन मैं खामोश बैठा रहा उसके सामने 
उसके ओठों पर हल्की सी मुस्कुराहट थी या शायद 
रहा हो कोई दर्द 
वह बिस्तर पर था और हो चुका था तब्दील एक कंकाल में 
देर तक वह देता रहा मुझे डॉक्टरों, हकीमों और वैद्यों का हवाला 
उसे कोई मलाल न था 
मैं उसे सुनता ही रहा

मुझे याद आए अपनी कहानी के वे प्रसंग 
जहाँ वह शिद्दत से मौजूद था 
उसके दरवाजे के वे पल्ले जिनकी दरारों से 
दिखाई देती थी बाहर की दुनिया 
अक्षरों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक भाषा में ढालने का उसका काम

गिरफ्त खामोशी की तकलीफदेह थी 
जब मैं उससे बाहर आया 
मेरा पात्र धीरे-धीरे पास आती शाम को देख रहा था 
शवयात्रा में जुटे आठ दस लोग 
तत्परता से उसे फूँक आए 
मुझे अब लग रहा कि उसके संग 
मेरा भी कुछ जाता रहा है 
जैसे थोड़ी बहुत मृत्यु मुझे भी आई है

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अब उधर से गुजरता नहीं देखता मैं 
कवेलू वाला छप्पर 
अब मैं उस कहानी को भी नहीं पढ़ता जहाँ रहा आया वह 
अब मैं 
उसके जिक्र से भी भरसक बचता हूँ 
उसका गुजरना गोया मेरा भी गुजरना है यहाँ

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