थिरकता हुआ हरापन
थिरकता हुआ हरापन

(गोवा के एक घने जंगल से गुजरते हुए)

हरे भरे सघन जंगलों के कटोरे 
की कोर पर 
धीरे-धीरे ससर रही है हमारी ट्रेन 
सुदूर 
आदिवासी बस्तियों से 
छन-छन कर आ रही है 
दमामों की गंभीर आवाज 
पसर रहा है एक अनहद संगीत 
थिरक रहा है हरापन 
लबालब भरे हुए कटोरे में 
और मदहोश सर्पिनी की तरह 
ससर रही है हमारी ट्रेन 
इस कटोरे के एक किनारे 
उधर, बाईं ओर 
रेल की पटरियों से सटी 
ऊँची पहाड़ी से 
झर रहा है उजला प्रपात 
चाँदनी पिघलकर 
झर रही है पलती उजली रेखा की तरह 
किसी नन्हें शिशु ने 
खींच दी है चॉक से एक लंबी लकीर 
या, ढरक गई है 
किसी ग्वालन की गगरी से 
दूध की धार

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इस घने जंगल में 
नाच रहा है कहीं 
आदिवासियों का झुंड 
नाच रही है कहीं 
आदिवासी युवतियाँ 
बाँध कर पैरों में 
हरेपन की घुँघरू, 
उनके होंठों से फूटी संगीत लहरी 
घुँघरुओं की रुन-झुन के साथ मिलकर 
बन गई है 
प्रपात की सफेद धार 
ढरक रही है 
पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी से 
ढरक रही है 
कटोरे की कोर पर 
हमारी ट्रेन की पटरियों से 
ठीक सटे बाईं ओर।

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कटोरे के 
थिरकते हुए हरापन में 
प्रतिबिंबित हो रही हैं 
हमारे हृदय की उमंगें 
उमग रहा है 
हमारा जीवन-संगीत 
दोनों मिल रहे हैं, हो रहे हैं एक आकार 
ढरक रहे हैं बनकर 
दूध का अक्षय भंडार

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