थैंक्यू मरजीना | रतीनाथ योगेश्वर

थैंक्यू मरजीना | रतीनाथ योगेश्वर

थैंक्यू मरजीना !

तेरी ही हिकमत थी कि – बच गया मैं
वरना लुटेरों ने तो लगा ही दिया था
दरवाजे पर –
“कट्टम-कुट्टम” का निशान

लुटेरों की चाल का
कुछ भी अंदाजा नहीं था
मैं तो… किनारे पर उलीच दिए गए
कछुए की तरह
कीचड़ में अपनी पूँछ हिला रहा था

इतना भी पता नहीं था मुझे कि –
शरीर में होता है उतना नमक
जितना समुद्र के पानी में

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थैंक्यू मरजीना !

तुम्हारी हिम्मत को सलाम
तुम्हारी हिकमत का शुक्रिया
कि तुम्हारी ही वजह से वाकिफ हो पाया मैं
खौफनाक रातों की गिरह-गाँठों से
कि सुन पाया
जंगल की सरगोशियों के बीच
लुटेरों के / घोड़ों के / टापों की आवाज

थैंक्यू मरजीना !

तुम्हारे बूते ही –
कई टुकड़ों में बँटी / लालच की लाश को
लगा पाया ठिकाने
पर फिर भी तराजू के पलड़े के पीछे
साँट दी गयी बदनीयती की मोम में
चिपकी ही रह गईं कुछ अशर्फियाँ

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थैंक्यू मरजीना !

कि तुम्हारे साथ ने ही दी मुझे
इतनी ताकत / कि भिड़ गया मैं –
भीतर के हत्यारों के गिरोह से
और तुम्हारी ही कटार के बल पर
कर सका ऐलान कि –

“भले ही मुझे खुदा की इस जन्नत से
निकाल दिया जाय,
या खदेड़ दिया जाय लहकते-दहकते
रेतीले ढूहों की ओर….

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सच से वाकिफ होने के अपने इरादों पर
नहीं जमने दूँगा धूल”
पता चल चुका है कि –

“बने बनाए ढाँचों का इनकार ही
असलियत की ओर लौटने के
रास्तों का खुलना है…”

थैंक्यू-थैंक्यू
थैंक्यू वेरी मच मरजीना !