सूरज | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
सूरज | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

मैं भोर की नींद में हूँ
और वह –
रात की नींद से भाग
मेरे सिरहाने खड़ी है

संबंधों की इस भोर –
मैं उसे कविता कहता हूँ
और वह खिलखिलाकर कहती है –
अरे कवि! कविता नहीं उषा कहो

इस तरह – मैं भीतर कविता कहता हूँ
तो बाहर उषा हो जाती है
और बाहर उषा कहता हूँ
तो भीतर कविता हो जाती है

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उषा और कविता के रहस्य में उलझा
मैं परिंदों की चहचहाहट और उड़ान में लगा हूँ
और परिंदे हमारा संशय ले उड़ रहे हैं
दूर देश में उड़ते परिंदों को देखने
पूरब से सूरज निकल रहा है
और मेरी आत्मा बेचैन है
पूरे सूर्योदय को अपने भीतर भरने के लिए

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इस तरह – मैं एक सुंदर रहस्य में उलझा हूँ
और मेरे बचपन का दोस्त सूरज
धीरे-धीरे चलने की कोशिश में है।

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