सुख-दुख | अर्पण कुमार

सुख-दुख | अर्पण कुमार

तुम मिलती थी रोज
और मैं लिखता था
कुछ-न-कुछ
तुम पर
मेरी उम्र के
वे सर्वाधिक सुखद हिस्से थे

तुम अनुपस्थित रही
लंबे अरसे तक
दिन, हफ्ते, महीने, बरस…
और मैं लिखता रहा
कुछ-न-कुछ
तुम पर
कुछ ज्यादा ही
मेरी जिंदगी की वे
सर्वाधिक अँधेरी कतरनें रहीं

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तुम थी, तब कविता थी
तुम नहीं थी, तब कविता थी
सुख था, तब कविता थी
दुख था, तब कविता थी
सुख-दुख जो तुमसे थे
कविता
जो तुम पर थी।