स्थितिबोध | प्रेमशंकर मिश्र
स्थितिबोध | प्रेमशंकर मिश्र

स्थितिबोध | प्रेमशंकर मिश्र

स्थितिबोध | प्रेमशंकर मिश्र

भूख प्‍यास से आकुल
आँतों के प्रकाश में
मद मादक सम्‍मोहन से कुछ दूर खड़ा
इस खड़ी रात में
आज, अचानक
जनम-जनम का भरम मिट गया
एक निमिष के लिए तुम्‍हारी मुस्‍कानों को चीर

सत्‍य साकार टिक गया।
अभी-अभी
जब नित्‍य-प्रति वाली शाम मिली थी
बीते कल पर खड़ी
आज की मंजिल नमकहराम मिली थी

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मंजिल :
जिसने जग के यश-अपयश लँघवाए
दिन के सारे सत्‍य
जिंदगी के झलमल झलके सहलाए
अप्रत्‍याशित लुप्‍त हो गई।
मीत!
काश तुम ऐसे रहते
या कि तुम्‍हारे जीवन में भी
इसी तरह
ऊबड़ खाबड़ से सोते बहते
तो शायद
ये समानांतर रेखाएँ
आगे मिल जातीं
और कोई
आकृति बन जाती।

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