सॉनेट – 2 | नामवर सिंह

सॉनेट – 2 | नामवर सिंह

दोस्त, देखते हो जो तुम अंतर्विरोध-सा
मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि दोष है।

यहाँ एक ही सत्य सहस्र शब्दों में विकसा
रूप-रूप में ढला एक ही नाम, तोष है।

एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी।

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मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन समूह की है, जब सागर में है कुप्पी
मुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरंतर।

मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भर कर
मुझे उठाएगा सहस्र कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाँहें ही स्वर शर भास्वर
मुझ में ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को ही भर लेंगे।

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