स्नान-पर्व | अर्पण कुमार

स्नान-पर्व | अर्पण कुमार

अपनी ही देख-रेख में
बनाए घर की छत पर
मैं नहाया
आज पहली बार
खुले, फैले, औंधे तने
आसमान तले
आत्मप्रकाशित धूप की
उबटन लगाते
और उत्सवरत, प्रवहमान हवा की

मदनीय कस्तूरी गंध
अपने फेफड़ों में
भरपूर भरते हुए
बड़े जतन से लगवाई फूलों की
क्यारियों के बीच बैठकर
आलथी-पालथी मारे
पूरे मनोयोग से
भरपूर निश्चिंतता में
भरे बाल्टे से पानी निकल
मग भर-भर कर
मन भर
भिगोता खुद को आपादमस्तक
चमकाता इंच-इंच अपनी त्वचा को

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लंबे समय बाद
आज मैं नहाया
महानगर में महानगर की
नपी-तुली मर्यादाएँ
दरकिनार कर
महँगी टाइल्स की
मनभावन डिजायन वाले
बाथरूम की चमकती, फिसलती
उजली दीवारों का पानी उतारता,
बाहर आता उनके मोहपाश से
‘शावर’ के नीचे सिर झुकाकर नहीं
आकाश की तरफ
गर्दन उठाकर नहाया
अपनी ही आग में
जलते-दिपते सूरज की ओर
होकर अभिमुख
और उसको मुँह चिढ़ाता
पानी उड़ेलता रहा

अपनी समुत्सुक, मचलती देह पर
और पानी की चंद फुहारों की
शीतलता के लिए सप्तपत्र सूर्य को
तड़पता देख
फैल गई एक आत्मगौरवान्वित हँसी
मेरे होंठों के भीगे, खुले कोरों पर
और चमक उठा मेरा पूरा देहात्म
जैसे केंद्रित हो गई हो
आकर एक जगह, एक साथ
हिमालय की समग्र शुभ्रता
और गरिमा एकबारगी
संबोधित किया सूरज को
स्फुट-अस्फुट अपने दृढ़ स्वरों में
मंत्रोच्चारण की विरुदावलि की
आदि-परंपरा को
आज कोई एक नया रंग देता…
ऐ मेरे पूज्य देवता!
तुम क्या सोचते हो
जब एक साधारण मनुष्य
के हाथ आए
इस असाधारण सौभाग्य के आगे
तुम्हारा देवत्व
छोटा, फीका और रोमांचरहित
पड़ जाता है

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सूरज की तपिश को कुछ और बढ़ाते
और उसकी ईर्ष्या का कारण बनते हुए
मैंने खूब मला
अपने अंग-प्रत्यंग को
और मजे से झटकता रहा
अपने गीले, सुदीर्घ बालों को
सिर हिला-हिलाकर
किसी सिद्ध,प्रतापी तांत्रिक सा
देर-तलक

प्रकृति अवाक
देखती रही
मेरी तरंगित
स्नान-लीला की प्रगल्भता
आबद्ध किसी सम्मोहन से
भूलकर अपनी गति
कुछ देर हटकर
अपनी चूल से।

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