शोकगीत | जोसेफ ब्रोड्स्की

शोकगीत | जोसेफ ब्रोड्स्की

लगभग एक बरस बीत गया है। मैं लौट आया हूँ
युद्धक्षेत्र में, लौट आया हूँ उनके पास
जो सीख चुके हैं उस्‍तरे के सामने पंख फैलाना
या-बेहतर स्थिति में-भौंहों के पास,
जो हैरान है कभी साँझ के आलोक पर
कभी व्‍यर्थ रक्‍तपात पर।

अब यहाँ व्‍यापार होता है तुम्‍हारी अस्थियों का,
झुलसी सफलताओं के तमगोंका, बुझी मुस्‍कानों का,
नये भंडारों के डरावने विचारों का,
षडयंत्रों की स्‍मृतियों और धुले झंडो पर अनेकों जिस्‍मों
की छाप का।

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बढ़ती जा रही है लोगों की संख्‍या
उद्दंड वास्‍तुकला की एक विधा हैं ये खंडहर,
बहुत अधिक अंतर नहीं है
हृदय और अँधेरी खाइयों में –
इतना नहीं कि डरने लग जायें इससे कि
हमारी कहीं-न-कहीं फिर से मुठभेड़ होगी
अंधे अंडों के तरह।

सुबह-सुबह जब कोई देख नहीं रहा होता तुम्‍हारा चेहरा
मैं चल देता हूँ पैदल उस स्‍मारक की ओर
जिसे ढाला गया होता है बोझिल सपनों से।
जिस पर अंकित होता है शब्‍द ‘विजेता’,
पढ़ा जाता है ‘बीजूका’
और शाम तक हो जाता है ‘बिटका’।

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