शेष | केसरीनाथ त्रिपाठी

शेष | केसरीनाथ त्रिपाठी

क्षितिज के उस पर देखें क्‍यों अभी हम
अभी तो इस पार का जीवन बहुत अवशेष है

नयन खुलते ही मिला, आँचल जो उसके स्‍नेह का
‘जीवेम शरदः शतं’ गुंजन है जिसके नेह का
आशीर्वचन की उस किरण का प्रस्‍फुटन बन
अंक में माँ के अभी तो कुलबुलाना शेष है

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दिव्‍य रूपा यह धरा, यह सृष्टि, अंबर
पुष्‍प, पल्‍लव, तरु, शिला, निर्झर, सरोवर
कूल पर सरिता के कुंजन-वीथियों में
प्रीत के गीतों का मेरा गुनगुनाना शेष है

शेष है अंगार पथ पर झूम कर चलना अभी
और दहकते होठ से है प्‍यार का बहना अभी
स्‍नेह का वर्षण करे जो प्रेम का सिंचन करे
व्‍योम में सागर-सुतों का गड़गड़ाना शेष है

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जिंदगी कुछ दिवस का ही योगफल केवल नहीं
कर्म की अनुभूति है यह, शर्त पर चलती नहीं
है जहाँ हर पल स्‍वयं में, पूर्ण इक अध्‍याय सा
कई सोपानों की गाथा अभी लिखना शेष है

शैल शिखरों से मुखौटे, सागर तलों में धँस गए
और बौने आदमी सर्वत्र, प्रचलित हो गए
नए युग के आदि का आह्वान करने के लिए
एक मानव का अभी निर्माण करना शेष है

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