शासको, तुम हार रहे हो | अर्पण कुमार

शासको, तुम हार रहे हो | अर्पण कुमार

आखिर कब तक तुम हमें ठगते
और कोई कब तक चुप और निष्क्रिय
रह सकता है
किसी के खौफनाक चेहरे से डरकर
या फिर किसी के देवत्व की महिमा तले दबकर
शासको,
बेशक तुम हमारे मालिक हो और हम तुम्हारी प्रजा
सदियों से तुम्हारी और हमारी पीढ़ियों के बीच
यही संबंध रहे हैं
मगर अब हमारी आवाज से
तुम्हारी अकड़ी हुई कुर्सी और
सत्ता के तुम्हारे गलियारे दोनों कंपायमान हैं
तुम फटी बाँसुरी सी
हमारी बेसुरी आवाज को सुनना
पसंद तो खैर कभी नहीं किए
मगर हम दरिद्र-नारायण
जन्म-जन्मांतर से भूखी अपनी अँतड़ियों को पकड़कर
तुम्हारे आश्वासन की कौर
कब तक खा सकते हैं
और तुम्हारी प्रशंसा में नतमस्तक हो
विरुदावली कब तक गा सकते हैं

तुमने बड़ी चतुराई से
आजादी की लड़ाई में हमारी संख्या का
इस्तेमाल किया
हर मोर्चे पर हमें आगे रखा
मरवाया और कटवाया
मगर स्वतंत्रता के सुख और अधिकार से
हमें दूर ही रखा
हाँ, मतदान का झुनझुना पकड़ाकर
हमें सरकार के चुनाव में भागीदार होने का
एक आत्म-भ्रम जरूर दिया
जिससे उबरते और निकलते
हमें साठ साल से अधिक लग गए
और आज भी हम तुम्हारी इस मृगमरीचिका से
पूरी तरह बाहर निकल पाए हों
इसमें हमें संदेह ही है
और फिर तुम जादूगर भी तो बड़े और पुराने हो
एक से बढ़कर एक तिलिस्म गढ़ने में माहिर
हम भोली-भाली जनता चाहे अपने को
जितना होशियार समझ लें
मगर हमारी जिंदगी
तुम्हारे रचे रहस्यों में फँसने, समझने और
निकल बाहर आने में ही बीत जाती है
बावजूद इसके हम अपने हकों के लिए
अब किसी मुकाम तक जाने को तैयार हैं
‘सड़क से संसद तक’ कहीं भी धावा बोलने का
हौसला लिए सर तान खड़े हैं
बहरी और मदांध दीवारों से टकराकर लौट आती
हमारी आवाज अब अनसुनी नहीं रह पाएगी
क्योंकि तुम्हारी दीवारें अब दरकने लगी हैं
मजबूरी में या कहें वक्त की नजाकत को समझते हुए
तुमने हमारी माँगों के पुलिंदों को
अपनी मेज पर जगह दी है
उस पर चर्चा करना स्वीकार किया है
अब भी तुम्हारी हेकड़ी जाने में
खैर काफी वक्त है
मगर तुम्हारे हारने की शुरुआत हो चुकी है
हम जनता-जनार्दन के लिए
यह भी कम नहीं है कि
हमारी सामुदायिकता और एकजुटता
तुम्हारी पेशानी पर पसीना चुहचुहा देने
के लिए काफी है
यह भी हमारे लिए किसी जीत से कम नहीं कि
तुम राजनेताओं या नौकरशाहों के आगे अगर
सचमुच का कोई जननेता या जनसेवक आ जाए
तो तुम्हारी घिग्घी बँधने में देर नहीं लगती
क्योंकि चाहे जितने ‘ऐट्टीच्यूड’ दिखला लो
चाहे जितनी पीढ़ियाँ
शासन कर लो
चाहे जितनी बड़ी गाड़ी में घूम लो
चाहे जितने झक सफेद कपड़े पहन लो
तुम भी आखिर एक जन-प्रतिनिधि ही हो
तुम्हें हम ही चुनते हैं
चाहे डरकर, प्रलोभन में आकर या फिर
गुमराह होकर
तुम्हारी सत्ता की चाबी
हमारे ही हाथों में रहती है
अब हमें भी अपनी इस ताकत का
तर्कपूर्ण उपयोग करना आ गया है
हमें भी अपनी शर्तों के साथ
तुम्हारे समर्थन में या फिर तुम्हारे विरोध में
खड़ा होना है

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शासको,
हम अपने जीवन की बेहतरी के लिए
अब जायज बातों को कहने से नहीं चुकेंगे
और तुम्हारे साथ हमारा संबंध भी सशर्त होगा
तुम भी हमारे इस निश्चय को
अब जान चुके हो
और डरने लगे हो
शासको, तुम जानते हो
अब तुम हार रहे हो