शाम बेच दी है भाई, शाम बेच दी है मैंने शाम बेच दी है!
वो मिट्टी के दिन, वो घरौंदों की शाम, वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम, मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम, वो घर भर में गोरस की गंधों की शाम वो दिन भर का पढ़ना, वो भूलों की शाम, वो वन-वन के बाँसों-बबूलों की शाम, झिड़कियाँ पिता की, वो डाँटों की शाम, वो बंसी, वो डोंगी, वो घाटों की शाम, वो बाँहों में नील आसमानों की शाम, वो वक्ष तोड़-तोड़ उठे गानों की शाम, वो लुकना, वो छिपना, वो चोरी की शाम, वो ढेरों दुआएँ, वो लोरी की शाम, वो बरगद पे बादल की पाँतों की शाम वो चौखट, वो चूल्हे से बातों की शाम, वो पहलू में किस्सों की थापों की शाम, वो सपनों के घोड़े, वो टापों की शाम,
वो नए-नए सपनों की शाम बेच दी है, भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।
वो सड़कों की शाम, बयाबानों की शाम, वो टूटे रहे जीवन के मानों की शाम, वो गुंबद की ओट हुई झेपों की शाम, हाट-बाटों की शाम, थकी खेपों की शाम, तपी साँसों की तेज रक्तवाहों की शाम, वो दुराहों-तिराहों-चौराहों की शाम, भूख प्यासों की शाम, रुँधे कंठों की शाम, लाख झंझट की शाम, लाख टंटों की शाम, याद आने की शाम, भूल जाने की शाम, वो जा-जा कर लौट-लौट आने की शाम, वो चेहरे पर उडते से भावों की शाम, वो नस-नस में बढ़ते तनावों की शाम, वो कैफे के टेबल, वो प्यालों की शाम, वो जेबों पर सिकुड़न के तालों की शाम, वो माथे पर सदियों के बोझों की शाम वो भीड़ों में धड़कन की खोजों की शाम,
वो तेज-तेज कदमों की शाम बेच दी है, भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।
होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…
सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…
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सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही हैपानी गिर नहीं रहापर गिर सकता है किसी भी समयमुझे बाहर जाना हैऔर माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय हैकि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ…