तब देर रात गये एक पागल तान
अँधेरे के साँवर कपोलों पर फेनिल स्पर्श करती थी
बसंती झकारों में मदहोश एक-एक पत्तियाँ
लयबद्ध नाचती थीं
जंगल में बजते थे घुँघरू
चाँद चला आता था तकिए के पास
कहने को कोई एक गोपनीय बात

नींद खुलती थी पुरवारी खिड़की से चलकर
सुबह का सूरज सहलाता था गर्म कानों को
और माँ के पैरों का आलता
फैल जाता था झनझन पूरे आँगन में

See also  महानगर में चाँद | कृष्णमोहन झा

तब पहली बार देखी थी मैंने
नदी की उजली देह
भर रही थी मेरी साँसों में
पहली बार ही
झँवराये खेतों की सोंधी-सोंधी हँसी

दरअसल वह ऐसा समय था
कि एक कविता मेरी मुट्ठी में धधकती थी
मैं भागता था
घर की देहरी से गाँव के चौपाल तक
सौंपने के लिए
उसे एक मासूम सी हथेली में

See also  सद्यःस्नाता | अशोक वाजपेयी

सूरज डूबता था
मैं दौड़ता था,
रात होती थी मैं दौड़ता था

अन्ततः हार कर थक गया बेतरह मैं
अपने स्कूल की डायरी में लिखता था एक शब्द
और चेहरे पर उग आई लालटेन को
काँपते पन्नों में छुपा लेता था