सारी चीजें नहीं | कृष्णमोहन झा

सारी चीजें नहीं | कृष्णमोहन झा

समय के बीतने से 
सारी चीजें नहीं जा गिरतीं 
बीते हुए कल के जल में 
आँख के रंग की तरह 
कुछ चीजें साथ-साथ चलती हैं

मेरे ललाट पर 
अब भी बाकी हैं 
स्लेट से पोछे ‘विद्या’ का पुण्य 
और खड़िया चुराने की सलवटें 
अब भी मेरी आँखों में डबडबा रहे हैं 
नौटंकी में दिखे रावण का डर 
और मेले की मिठाई के रंग 
रात के गर्भ में महुए के चूने की आहट 
और पिता के खर्राटे भरने की विलंबित घरघराहट 
अब भी कहीं गूँज रही है… 
सड़क पर भागते-दौड़ते 
और बसों में हिचकोले खाते हुए भी 
मेरे सामने खुली रहती है एक विराट खिड़की 
एक और दुनिया मेरे साथ दौड़ती रहती है…

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बाढ़ के बाद 
चेहरे पर कास-पटेर सा उगा दैन्य 
झुरझुराती ठंड में 
गहबर के सामने काँपते लोगों का अडिग विश्वास 
समय को चीरकर आती 
डिबिया की काँपती लौ 
अब भी रहती है मेरे आसपास…

ऐसा भी होता है 
कि लाख जतन के बावजूद 
कुछ चीजों को यह समय नहीं ही बना पाता तरल 
कुछ भी करो 
वे रीतती नहीं हैं।

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