सपने की बात | राहुल देव

सपने की बात | राहुल देव

जो ढूँढ़ता हूँ मैं किताबों में 
वह मिलता नहीं 
आदमी की असलियत 
उसकी परिभाषा हम नहीं जानते 
जो दिखता है 
वह हमेशा सच होता नहीं 
सपने कितने विशाल होते हैं 
सोचो सपनों की एक दुनिया होती 
तो कैसा रहता 
सपने देखने वालों पर 
कोई टैक्स नहीं लगता 
लोग हँसते हैं 
शायद वे नहीं जानते 
सपनों में जी लेना 
कितना सुकून देता है 
यह उतना कठिन भी नहीं 
जितना कि हाड़तोड़ मेहनत करके 
दो रोटियों का जुगाड़ करना 
लोग यह भी कह देते हैं 
सपने कभी सच नहीं होते 
लेकिन जो आज सच है 
वह भी तो कभी सपना रहा होगा 
सपनों के आगे हमारी पहुँच नहीं 
कोई उनपर विश्वास नहीं करता 
विज्ञान प्रैक्टिकल माँगता है 
आत्मा का तोड़ अभी विज्ञान नहीं ढूँढ़ सका 
सपनों के आगे क्या है कुछ ? 
खैर ये तो अपनी अपनी मान्यता है 
मुझे इससे क्या 
सपना ही सही 
कल्पना मेरी पूँजी है 
कभी रात को तो कभी दिन में ही 
देख लेता हूँ मैं 
कोई हसीन सा सपना 
इस आशा में कि 
कभी तो होगा अपना 
कल रात मैंने देखा कि 
मैंने अपनी सब बहनों की शादी कर दी है 
में बहुत अमीर बन गया हूँ 
बहुत सारे रुपये मुझे पता नहीं कहाँ से मिल गए 
मैंने एक गाड़ी भी खरीद ली 
मेरी चार-पाँच किताबें भी 
एक साथ छप गईं 
मैं अपने नए नवेले मकान के 
बड़े से चबूतरे पर खड़ा होकर 
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा रहा हूँ – 
“साहित्य-सदन” 
नया टी.वी., नया फ्रीज 
सारी समस्याओं का हल 
एक पल में हो गया, 
घर में पकवानों की सुगंध उठ रही है 
उधर पड़ोसी यह देख-देखकर जले जा रहे हैं 
जो हमारी गरीबी का ताना मारते थे 
वे तो नजर नहीं आ रहे 
हाँ चीटियों की पंक्ति की तरह 
गुड़ की भेली देख 
रिश्तेदारों की जमात चली आ रही है 
आज पूरा घर भर गया है 
आदमी को जब पैसा मिलता है 
तो वह अपना हर शौक 
पूरा कर लेना चाहता है 
में इससे बच नहीं पाता 
पता नहीं क्या सोचकर 
फिर भी झूठे आदर्शवाद का 
ढोल पीटना मेरी फितरत में नहीं 
अब आप ही देखिए – 
मेरी शादी के लिए पता नहीं कहाँ से 
एक लड़की प्रगट हो गई 
और मैंने भी बगैर कुछ सोचे-समझे 
उसके गले में वरमाला डाल दी 
सपनों ही सपनों में समय कैसे बीत गया 
पता ही न चला 
और मैं दो बच्चों का बाप बन गया 
सपने भी बड़े विचित्र होते हैं 
कहाँ की बात कहाँ घुस जाती है 
दिमाग का क्या है 
अपने आप पर मैं भरोसा रखूँ 
तो भी दृढ़ नहीं रह पाता 
मेरी भूलने की आदत ने 
मुझे कहाँ ला पटका ! 
पता चला मुझे सातवें आसमान पर 
यमराज ने डिनर पर बुलाया है 
मैं जब तक वहाँ पहुँचता 
छठे आसमान पर अमरावती में 
अप्सराओं का डांस देखने रुक गया 
जैसा कि आमतौर पर लोग बीच चौराहे पर 
तमाशा होते देख रुक जाते हैं 
नाच देखते-देखते भोर हो गई 
मैं भागा-भागा सातवें आसमान पर लपका 
जहाँ दो भारी-भरकम शरीर वाले यमदूत 
मेरे स्वागत के लिए तैयार खड़े थे 
उन्होंने बगैर कुछ कहे सुने ही 
मुझे वहाँ से धक्का दे दिया 
और मैं हाय हाय करता पृथ्वी पर 
धम्म से आ गिरा, 
मेरे मुँह ने यमदूतों को नवाजा, 
साले काले-कलूटे बैंगन लूटे 
अब कहीं और जाने की 
मुझमें शक्ति ही कहाँ थी 
मुझे आश्चर्य हो रहा था 
कि मैं बच कैसे गया? 
थके-हारे कदमों से मैं घर पहुँचा तो देखा 
वहाँ मेरे क्रिया कर्म की तैयारियाँ चल रहीं हैं 
मेरा पारा चढ़ गया 
मैंने सबको डाँटा 
अपने जिंदा होने का सर्टिफिकेट देने के लिए 
मैं अपने शरीर में घुसा 
और लोग भूत-भूत चिल्लाते हुए भागे…! 
और भी पता नहीं क्या-क्या 
देखता गया मैं कल रात 
जो भी हो लेकिन नींद बहुत अच्छी आई थी 
और सुबह जब मैं मैदान गया 
तो सारे सपने मेरी आँखों के सामने तैर रहे थे 
लोग कहतें है कि – 
सुबह के समय देखे गए सपने 
कभी-कभी सच भी हो जाते हैं !!

See also  चार : तुमसे | अभिज्ञात