सागर मुझे अपने

सीने पर बिठाए रखता है
अपनी लहरों के फन पर

उसने खुद ही उठा लिया था मुझे
तट पर अकेला पाकर
मैं ढूँढ़ रहा था शब्द
उसकी गहराई के लिए
बार-बार चट्टानों से टकराकर
फेन सी पसरती उसकी
लहरों के लिए
जीवन के प्रति उसकी
अनंत आत्मीयता के लिए

मैं लौटना नहीं चाहता था
फिर अपने शहर में
लहरें बढ़ती तो छोड़ देता
खुद को उनके साथ
फेंक देतीं वे मुझे
खुरदरी, नुकीली चट्टानों पर
लौटतीं तो दौड़ पड़ता
उनके पीछे-पीछे

See also  पढ़ने निकले बच्चे | राकेश रेणु

मछलियाँ भी होतीं
मेरे साथ इस खेल में
बिल्कुल मेरे वहाँ होने से अनजान
भीगी रेत पर फिसलती हुईं

अच्छा लगता मुझे

समुद्र के साथ खेलना
डर नहीं लगता
कि वह मुझे डुबो सकता है
वह मुझे पत्थरों पर
पटक कर मार सकता है
मुझे झोंक सकता है
भूखी शार्क के जबड़े में

मैं सम्मोहित सा
देखता रहता जमीन पर
बिछे आसमान को
हवा के झोंकों के साथ
बहते, लहराते हुए
सुबह उसके गर्भ से
निकलता ठंडा सूरज
और दिन भर जलकर
अपने ही ताप से व्याकुल
थका हुआ बेचारा
अपना रथ छोड़
सागर में उतर जाता चुपचाप

See also  युद्ध | लीना मल्होत्रा राव

सागर के पास होकर
सागर ही हो जाता मैं
विशाल और असीम
मेरे भीतर होती लहरें
सीपियाँ, मछलियाँ , मूँगे
और वह सब कुछ
जो डूब गया इस

अप्रतिहत जलराशि में
समय के किसी अंतराल में

और तब सागर दहाड़ता
मेरी ही आवाज में
सुनामी आती मेरे भीतर
चक्रवात की तरह
गरजने लगता मेरा मन
तट से दूर तक की
जमीन को निगलने
की चाह से भरपूर
हवाओं की बाँह थामे
उछलता आसमान की ओर
ज्वालामुखी का रक्ततप्त
लावा बहने लगता मेरी नसों में
खदबदाते खून की तरह
धड़कने लगता मैं
समूचा हृदय बनकर

See also  वह कैसे कहेगी | अशोक वाजपेयी

खामोश होता तो
सुनता मुझे अपने भीतर
पूछता नहीं मुझसे
मेरे होने का मतलब
उसे पता होता
मुझे कुछ नहीं चाहिए
सागर से, उसकी सत्ता से
उसकी अपराजेयता से

सागर को आखिर क्या
चाहिए सागर से