सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था | अनुराधा सिंह
सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था | अनुराधा सिंह

सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था | अनुराधा सिंह

सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था | अनुराधा सिंह

लिखित लिख रहे थे
प्रयोग बनते जा रहे थे
अंकों और श्रेणियों में ढल रहे थे
रोजगार बस मिलने ही वाले थे
कि हम प्रेम हार गए
अब सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था

पिताओं की मूँछें नुकीली
पितामहों की ड्योढ़ियाँ ऊँची
हम काँटेदार बाड़ों में बंद हिरनियाँ
कंठ से आर पार बाण निकालने
की जुगत नहीं जानती थीं
बस चाहतीं थी कि वह आदमी
इस दुनिया को बारूद का गोला बना दे
हम युद्ध में राहत तलाशतीं
अपनी नाकामी को
तुम्हारी तबाही में तब्दील होते देखना चाहती थीं

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हाथों में नियुक्ति पत्र लिए
कृत्रिम उन्माद से चीखतीं
घुसती थीं पिताओं के कमरे में
उसी दुनिया को लड्डू बाँटे जा रहे थे
जिसने बामन बनिया ठाकुर बता कर
हमसे प्रेमी छीन लिए थे
सपनों में भी मर्यादानत ग्रीवाओं में चमकता
मल्टीनेशनल कंपनी का बिल्ला नहीं
बस एक हाथ से छूटता दूसरा हाथ था

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ये विभाग स्केल ग्रेड क्लास
तुम्हारे लिए अहम् बातें होंगी
हमने तो सरकारी नौकरी का झुनझुना बजाकर
दिल के टूटने का शोर दबाया था

हमसी कायर किशोरियों के लिए
जातिविहीन वर्गविहीन जनविहीन दुनिया
प्रेम के बच रहने की इकलौती संभावना थी
क्षमा कीजिए, पर मई १९९२ में सद्दाम हुसैन हमारी आखिरी उम्मीद था।

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