रुका रहता है | महेश वर्मा

रुका रहता है | महेश वर्मा

किसी भी वक्त तुम वहाँ से गुजरो –
तुम्हें मिलेगा धूप का एक कतरा
जो छूट गया था एक पुराने दिन की कच्ची सुबह से
और वहाँ गूँजता होगा एक चुंबन।
बीतते जाते हैं बरस दर बरस और
पुरानी जगहों पर ठिठका, रुका रहता है
समय का एक टुकड़ा।
एक लंबे गलियारे के अंतिम छोर पर
हमेशा रखी मिेगी एक धुँधली साँझ
और उसमें डूबता होगा एक चेहरा जो उसी समय
और उजला हा रहा था – तुम्हारी आत्मा के जल में।
उतरती सीढ़ियों पर तुम्हें विदाई का दृश्य मिलेगा
जो ले जाता था अपने साथ
प्रतीक्षाओं का पारंपरिक अर्थ।
कहीं और रखनी होगी एक और सुबह
अनपेक्षित मिलन के औचक प्रकाश से चुँधियाई
और शायद इसी से शब्दहीन
किसी मौसम के सीने में शोक की तरह रखा होगा
कोई और कालखंड
और कितनी खाली जगह हमारी आत्मा के भीतर
जहाँ रखते हम ये ऋतुएँ, ये बरस, ये सुबह और
साँझ के पुराने दृश्य।

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