पुस्तकालय विमर्श | अनामिका

पुस्तकालय विमर्श | अनामिका

गर्मी गजब है !

चैन से जरा ऊँघ पाने की

इससे ज्यादा सुरिक्षत, ठंडी, शांत जगह

धरती पर दूसरी नहीं शायद।

गैलिस की पतलून,

ढीले पैतावे पहने

रोज आते हैं जो

नियत समय पर यहाँ ऊँघने

वे वृद्ध गोरियो, किंग लियर,

भीष्म पितामह और विदुर वगैरह अपने साग-वाग

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लिए-दिए आते हैं

छोटे टिफन में।

टायलेट में जाकर माँजते हैं देर तलक

अपना टिफन बाक्स खाने के बाद।

बहुत देर में चुनते हैं अपने-लायक

मोटे हर्फों वाली पतली किताब,

उत्साह से पढ़ते है पृष्ठ दो-चार –

देखते हैं पढ़कर

ठीक बैठा कि नहीं बैठा

चश्मे का नंबर।

वे जिसके बारे में पढ़ते हैं –

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वो ही हो जाते हैं अक्सर

बारी-बारी से अशोक, बुद्ध, अकबर।

मधुबाला, नूतन की चाल-ढाल,

पृथ्वी कपूर और उनकी औलादों के तेवर

ढूँढ़ा करते हैं वे इधर-उधर

और फिर थककर सो जाते हैं कुर्सी पर।

मुँह खोल सोए हुए बूढ़े

दुनिया की प्राचीनतम

पांडुलिपियों से झड़ी

धूल फाँकते-फाँकते

खुद ही हो जाते हैं जीर्ण-शीर्ण भूजर्पत्र !

कभी-कभी हवा छेड़ती है इन्हें,

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गौरैया उड़ती-फुड़ती

इन पर कर जाती है

नन्हें पंजों से हस्ताक्षर।

क्या कोई राहुल सांस्कृतायन आएगा

और जिह्वार्ग किए इन्हें लिए जाएगा

तिब्बत की सीमा के पार ?