प्रश्नवाचक हाशिए | जगदीश श्रीवास्तव

प्रश्नवाचक हाशिए | जगदीश श्रीवास्तव

प्याज के छिलके
सरीखी जिंदगी
प्रश्नवाचक चिह्न बनकर रह गई।

गलत खत भेजे पते गुमनाम थे
कबूतर उड़ते रहे
आकाश में
कौन किसको दोष देगा अब यहाँ
घुन लगा है
टूटते विश्वास में

मील के पत्थर
सभी टूटे मिले
रेत में पदचिह्न बनकर रह गई।

See also  स्मृतियाँ आती हैं...

अगले सूरज को पाने के लिए
बढ़ रहे हैं काफिले
फुटपाथ पर
एक अदने आदमी ने फिर यहाँ
धर लिया सूरज को
अपने हाथ पर

हल हो न पाई
सवालों-सी कभी
सिर्फ अब तो भिन्न होकर रह गई।