पिता जी के यार | नीरज पांडेय

पिता जी के यार | नीरज पांडेय

पिता जी के तीन यार 
बाजा 
बत्ती 
और अखबार

बाजा तो पूरे दिन चलता है 
अगर 
कोई आ जाता 
तो थोड़ा सा धीम कर दिया जाता 
या 
अगर 
थोड़ी देर के लिए 
आसपास जाना होता 
तो धीम कर दिया जाता 
बाकी पूरा दिन 
अपनी 
धुन 
में

बाजा चल रहा है 
मतलब पिता जी आस पास कहीं हैं 
आहट रहती है उनके होने की 
जो ताकत भरती रहती है मुझमें 
उन्हें कभी उदास नहीं देखा 
हरदम मनहंग 
रहने वाले पिता जी 
थोड़े परेशान से हो जाते हैं 
जब 
उतर जाती है 
उनके बाजा की डोरी 
और खतम हो जाता है उसका सेल

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“ये आकाशवाणी का इलाहाबाद केंद्र है” 
यह आवाज सुनते ही 
देखने लगता हूँ 
आस पास 
अपने 
महसूस करने लगता हूँ उन्हें 
कुछ देर के लिए 
कहीं भी 
रहूँ 
घर या बाहर 
एक आदत सी बन गई है 
और 
अब तो 
मेरा भी यार 
बन चुका है बाजा

बत्ती का भी यही हाल है 
गलती से दबाव में अगर बटन दब गई 
तो तकिया के बगल 
पूरा दिन जलेगी

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जिस 
दिन जलेगी 
उस दिन शाम को 
ओरहन जरूर मिलेगा मुझे 
कि 
“का जनी कहाँ से लिआइ दिहा एका रोगही के एक्कउ दिन नाही चलत”

अखबार पूरा दिन उनके पास ही रहता है 
बाकायदा पेज वाइज 
तीन जगह से स्टेपलर किया हुआ 
इकट्ठा नहीं पढ़ते 
कुछ खबर खाना खाने के पहले 
और 
कुछ खाना खाने के बाद

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अब मेरे भी चार यार 
पिता जी, बाजा, बत्ती और अखबार!