घिस-घिस कर यह पत्थर
घाट की पहचान बन गया
कुछ तो है इसमें जड़ता के विरुद्ध
धड़क रहा जो मेरे हृदय में

एड़ियों की रंगत और हँसी की धूप
भरी है इसके भीतर
उदास आदमी की कविता
जल के किनारे
इसी के सहारे गाई गई

कुछ तो है इसमें ठस के बरक्स
टिका है जिससे यह कोमल जल के किनारे
आदिकाल से।

See also  देर तक | प्रेमशंकर शुक्ला