पानी में घिरे हुए लोग प्रार्थना नहीं करते वे पूरे विश्वास से देखते हैं पानी को और एक दिन बिना किसी सूचना के खच्चर बैल या भैंस की पीठ पर घर-असबाब लादकर चल देते हैं कहीं और
यह कितना अद्भुत है कि बाढ़ चाहे जितनी भयानक हो उन्हें पानी में थोड़ी-सी जगह जरूर मिल जाती है थोड़ी-सी धूप थोड़ा-सा आसमान
फिर वे गाड़ देते हैं खंभे तान देते हैं बोरे उलझा देते हैं मूँज की रस्सियाँ और टाट
पानी में घिरे हुए लोग अपने साथ ले आते हैं पुआल की गंध वे ले आते हैं आम की गुठलियाँ खाली टिन भुने हुए चने वे ले आते हैं चिलम और आग
फिर बह जाते हैं उनके मवेशी उनकी पूजा की घंटी बह जाती है बह जाती है महावीर जी की आदमकद मूर्ति घरों की कच्ची दीवारें दीवारों पर बने हुए हाथी-घोड़े फूल-पत्ते पाट-पटोरे सब बह जाते हैं
मगर पानी में घिरे हुए लोग शिकायत नहीं करते वे हर कीमत पर अपनी चिलम के छेद में कहीं न कहीं बचा रखते हैं थोड़ी-सी आग
फिर डूब जाता है सूरज कहीं से आती हैं पानी पर तैरती हुई लोगों के बोलने की तेज आवाजें कहीं से उठता है धुआँ पेड़ों पर मँडराता हुआ और पानी में घिरे हुए लोग हो जाते हैं बेचैन
वे जला देते हैं एक टुटही लालटेन टाँग देते हैं किसी ऊँचे बाँस पर ताकि उनके होने की खबर पानी के पार तक पहुँचती रहे
फिर उस मद्धिम रोशनी में पानी की आँखों में आँखें डाले हुए वे रात-भर खड़े रहते हैं पानी के सामने पानी की तरफ पानी के खिलाफ
सिर्फ उनके अंदर अरार की तरह हर बार कुछ टूटता है हर बार पानी में कुछ गिरता है छपाक… छपाक…
होंठ | केदारनाथ सिंह होंठ | केदारनाथ सिंह हर सुबहहोंठों को चाहिए कोई एक नामयानी एक खूब लाल और गाढ़ा-सा शहदजो सिर्फ मनुष्य की देह से टपकता है कई बारदेह से अलगजीना चाहते हैं होंठवे थरथराना-छटपटाना चाहते हैंदेह से अलगफिर यह जानकरकि यह संभव नहींवे पी लेते हैं अपना सारा गुस्साऔर गुनगुनाने लगते हैंअपनी जगह…
सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह सृष्टि पर पहरा | केदारनाथ सिंह जड़ों की डगमग खड़ाऊँ पहनेवह सामने खड़ा थासिवान का प्रहरीजैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस -एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्षजिसके शीर्ष पर हिल रहेतीन-चार पत्ते कितना भव्य थाएक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी परमहज तीन-चार पत्तों का हिलना उस विकट सुखाड़ मेंसृष्टि पर पहरा…
सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह सूर्यास्त के बाद एक अँधेरी बस्ती से गुजरते हुए | केदारनाथ सिंह भर लोदूध की धार कीधीमी-धीमी चोटेंदिये की लौ की पहली कँपकँपीआत्मा में भर लो भर लोएक झुकी हुई बूढ़ीनिगाह के सामनेमानस की पहली चौपाई का खुलनाऔर अंतिम दोहे कासुलगना भर लो…
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सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह सुई और तागे के बीच में | केदारनाथ सिंह माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही हैपानी गिर नहीं रहापर गिर सकता है किसी भी समयमुझे बाहर जाना हैऔर माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है यह तय हैकि मैं बाहर जाऊँगा तो माँ…