पाँच महीने के अपने बच्चे से बातचीत के बहाने | पंकज चतुर्वेदी

जब भी तुम रोते हो 
मैं जानता हूँ, मेरे बच्चे 
तुम कुछ कहना चाहते हो 
और उसे कह नहीं पा रहे

मसलन अपनी नींद, भूख 
किसी और इच्छा, ज़रूरत 
या तकलीफ़ के बारे में कुछ

भले ही कुछ कवियों को लगता हो 
कि बच्चे अकारण रोते हैं 
और कुछ और कवि 
ग़ालिब की कविता में आए दुख को 
महज़ ‘होने’ का अवसाद 
बताते हों 
मगर ऐसी शुद्धता 
मुमकिन नहीं है

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दुख के कारण होते हैं 
और उसके रिश्ते 
हमारे समय 
और ज़िंदगी के हालात से 
चाहे कोई उन्हें देख न पाए 
और अगर देख पा रहा है 
तो इस तरह के झूठ का प्रचार करना 
किसी सामाजिक अपराध से कम नहीं है

मैं जानता हूँ, मेरे बच्चे 
एक फ़्लैट के भीतर 
जिसका अपना कोई बाग़ीचा नहीं 
आकाश भी नहीं 
तुम सो नहीं पाते

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तुम्हें नींद आती है 
खुले आसमान के नीचे 
जहाँ ठंडी हवा चलती है 
उन सघन वृक्षों की छाँह में 
जो सड़क पर बचे रह गए हैं

उनसे पहले आते हैं 
वे इक्का-दुक्का 
ऊँचे और भव्य लैंप-पोस्ट – 
जो सरकार के प्रति जवाबदेह नहीं 
इसलिए शायद जले रह गए हैं – 
उन्हें देखते हो तुम 
अपार कौतूहल से 
अपनी ही नज़र में डूबकर 
मानो यह सोचते हुए – 
यह रोशनी इतनी उदात्त 
आख़िर इसका स्रोत क्या है ?

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और वे चंद्रमा और नक्षत्र – 
खगोलविद् उनके बारे में 
कुछ भी कहें– 
मगर जो न जाने कितनी शताब्दियों से 
दुनिया के सबसे सुखद 
और समुज्ज्वल विस्मय हैं

उनके सौंदर्य में जब तुम 
निमज्जित हो जाते हो 
मुझसे बहुत दूर 
फिर भी कितने पास मेरे 
तब मुझे लगता है, मेरे बच्चे – 
यह भी एक ज़रूरी काम है 
जिसके बिना 
मनुष्य होने में 
संपूर्णता नहीं