पलते रहे अँधेरे | मधुकर अस्थाना

पलते रहे अँधेरे | मधुकर अस्थाना

रोजनामचे लिखे गए
रोशन मीनारों के
पलते रहे अँधेरे
साये में दीवारों के।

उगे हुए
कितने धब्बे
सूरज के चेहरे पर
बैठा हुआ
भरी आँखों में
कड़ी धूप का डर
लाल बत्तियाँ
लील गई सपने
लाचारों के।

खड़ी रही लाइन में
अपने हिस्से की
दुनिया
हार गए
चढ़ते बाजारों के आगे
गुनिया
बने रहे तटबंध
धार से दूर
किनारों के।

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माटी में हैं साख
हुए दुनिया में
लतमरुए
तलवारों पर
चली जिंदगी
दिन आए गरुये
होते गए
रंग चोखे
हर दिन बटमारों के।