पागल | अनुराग शर्मा – Pagal

पागल | अनुराग शर्मा

पुरुष : “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुंदर हो जाती है।”

स्त्री : “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”

पुरुष : “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूँगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”

स्त्री : “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”

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पुरुष : “उस बुड्ढे की तो…”

स्त्री : “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”

पुरुष : “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”

स्त्री : “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक्की होते हो। याद रहे, शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”

पुरुष : “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”

स्त्री : “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लंपट हैं।”

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पुरुष : “सच है इसलिए कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पड़ेगा न!”

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स्त्री : “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”

पुरुष : “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”

बालक: “यह आदमी कौन है?”

बालिका: “पता नहीं! रोज शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”

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पागल – Pagal

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