निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर | लाल्टू
निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर | लाल्टू

निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर | लाल्टू

निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर | लाल्टू

मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठण्ड के बादल सिर पर गिरते रहे

पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में

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जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से

देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचम्भा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर

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एक ही बात रहती निरन्तर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर.

(समय चेतना – 1996)

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