नींद कागज की तरह | यश मालवीय
नींद कागज की तरह | यश मालवीय

नींद कागज की तरह | यश मालवीय

नींद कागज की तरह | यश मालवीय

बहुत नीली, बहुत गहरी
बहुत गाढ़ी
नींद कागज की तरह
सौ बार फाड़ी। 

घास सी उगती
पठारों पर भला क्या
ठेस खाते काँच का हो
हौसला क्या
जंगलों की बात करती है कुल्हाड़ी। 

दूर बैठी मंजिलों की
क्या खता है
हर सफर खुद आँख मूँदे
देखता है
बीच रस्ते में खड़ी सी रेलगाड़ी। 

READ  लगता है कि जैसे | पंकज चतुर्वेदी

हर घड़ी देखे घड़ी  
सुनसान घर भी
रात कैसी है,
धधकती दोपहर सी
वकत की झूलें जटाएँ, बढ़ी दाढ़ी।

रात में उठकर पिएँ पानी,
जहर भी
और फिर देखें
अँधेरे का कहर भी
दिखे जलती रेत, जलती हुई झाड़ी। 

याद आए नींद में ही
काम कितने
मुँह चिढ़ाने लगे
टूटे हुए सपने
हर सुबह जैसे लगे ऊँची पहाड़ी। 

READ  पाँच : उपलब्धि | अभिज्ञात

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *