निहितार्थ के लिए | अभिज्ञात
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निहितार्थ के लिए | अभिज्ञात

मैंने संपादक से कहा

यह कविता नहीं आंदोलन है

जवाब मिला – इसे किसी संगठन के हवाले कर दो

उसे इसकी ज्यादा जरूरत होगी

किताबों के ताबूत में दफन नहीं होनी चाहिए क्रांतियाँ

उसे चाहिए आम जनता की शिरकत

मैंने संगठनों से कहा

यह लो भई

यह आंदोलन नहीं आग है

दहकते हुए अंगारे

चिनगारी से बढ़कर

तब तक संगठन एनजीओ की शक्ल ले चुके थे

खैर तो यह हुई कि उन्होंने मुझे भठियारे के पास भेज दिया

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कहा – वही है आग का असली कद्रदान

वह कर पाएगा आँच व तपिश का

एकदम सही इस्तेमाल

मैंने वैसा ही किया

भठियारे से कहा –

यह आग नहीं कोयला भी है

बल्कि तुम्हारे लिए तो कोयला ही

जब-जब चाहोगे इसकी मदद से

लाल दहकते अंगार से भर उठेगी तुम्हारी भट्ठी

इसका कोयला कायम रहेगा जलने के बाद भी

कई-कई सदियों तक

पुश्त दर पुश्त

कोयले की यह असीम विरासत तुम सँभालो

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उसने कहा –

ले जाओ इसे किसी गाँव की गृहिणी के पास

वहाँ इसकी सख्त जरूरत है

वहाँ नहीं है ईंधन

जलावन नहीं बचे अब गाँव में

बोरसियाँ तक ठंडी पड़ी हैं

कोयला तो गाँव तक पहुँचता ही नहीं

मैं खुश था

मिला गया था मुझे सही ठौर

मैं गाँव-गाँव घर-घर घूमा

मैंने गृहिणियों से कहा –

इसे रखो सहेज कर

यह ईंधन भर नहीं है

कि झोंक दो चूल्हे में

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ताप जाओ किसी ठंडी रात में जला एक अलाव की तरह

यह और भी बहुत कुछ

इसका स्वाद तुम्हारी रोटियों में पहुँच जाएगा

दौड़ने लगेगा

तुम्हारी धमनियों में

तुम्हारे रोम-रोम में समा जाएगा

रफ्ता-रफ्ता यह ईंधन जरूरी हो जाएगा तुम्हारी साँसों के लिए

यह कविता की तरह है

बल्कि यह कविता ही है

उत्फुल्ल होते लोग सहसा उदास हो गए

उन्होंने मुझे लौटा दिया एक और पता दे

वह संपादक का था

अब मैं कहाँ जाऊँ…??

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