निकोला की माँ | रति सक्सेना
निकोला की माँ | रति सक्सेना

निकोला की माँ | रति सक्सेना

निकोला की माँ | रति सक्सेना

उसकी दुनिया बस उतनी
जितनी लंबी उसकी रोटी
उसका आकाश
खिड़की के पार उड़ता
काला परिंदा
उसके सारे रस
अंगूरों से आरंभ होकर
अंगूरों पर खतम होते

पंजे पर खड़ी हो
वह घूमने लगती है
चारो दिशाओं में

सीमाएँ बनती बिगड़ती
उसके सीने में
भाषाएँ चहचहातीं
दाने चुगती
उसकी हथेली पर

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कई देश बदले हैं,
बिना हिले अपनी धुरी से
निकोला की माँ ने

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