नेपथ्य | कविता – Nepathya

नेपथ्य | कविता

उसे पल भर को लगा जैसे वह बचपन के मेलेवाली बड़ी-सी चकरी में बैठा है और पेट में गुदगुदी जैसी मच रही है बेतरह। कुछ उठ रहा है घुमेड़ की तरह पर यह सब कुछ बिल्कुल पल भर के लिए था। पल भर बाद सबकुछ थिर हो चला था और इतना कि वह बाहर की तरफ नहीं देखे तो यह भी नहीं समझ पाए कि वह निस्सीम आकाश में उड़ रहा है। अपनी घबड़ाहट कम करने के लिए उसने बाहर देखना छोड़ दिया था और अब वह भीतर की तरफ देख रहा था। इसी देखने के क्रम में उसने महसूस किया कि ये चेहरे आते वक्त के सिने-सितारों के चेहरों से बिल्कुल अलहदा थे

बीती रात अवार्ड फंक्शन में विश्वास ने उन्हें फिल्मी कलाकारों को कंपनी देते हुए देखा था, उनके नृत्य के लिए पृष्ठभूमि तैयार करते हुए। पर अभी वे मंच के राजा थे, अपनी मर्जी के मालिक। वे तरंग में थे, दीन दुनिया को भुला कर अपनी पूरी क्षमता और आवेग के साथ। माहौल था कि झूम रहा था। विश्वास ने कैमरामैन सतीश से धीरे से कहा – कैमरा ऑन। वह बैठा रहा था जैसे कि उसने उसकी बात सुनी ही न हो; जैसे कि विश्वास ने कोई बेमतलब की बात की हो। विश्वास ने खुद आगे बढ़ कर कैमरा ऑन कर दिया और सतीश की तरफ आँखें तरेरी।

वे संख्या में बस साठ थे पर जैसे एक में सौ। अपनी ऊर्जा, अपने विश्वास और अपनी ताकत के बल पर। जिंदगी से भरे हुए वे थिरक रहे थे और माहौल में संगीत की धुन तैर रही थी, ‘है कोई तो वजह जो जीने का मजा यूँ आने लगा…’ उसने करीना कपूर को अवार्ड फंक्शन में इसी धुन पर थिरकते देख था। पर उसके पैरों की गति, हाथों के भाव सब उसे मात दे रहे थे। उसने सिर्फ एक साधारण सी नीली साड़ी पहन रखी थी, कस कर पिन की हुई। पर उसका आँचल फिर भी ऐसे फहर रहा था जैसे उसके साथ जुगलबंदी कर रहा हो, पूरे लय, ताल और गति में। उसकी आँखों के आगे से करीना कपूर का चमकता दमकता डिजाइनर ड्रेस गायब होने लगा था… फिर उसका चेहरा भी। लड़की उसकी आँखों में जगमगाने लगी थी… वह अब भी नाच रही थी। हाँ, गीत जरूर बदल चुका था… ‘आओगे जब तुम साजना, अंगना फूल खिलेंगे…’ उसने देखा था उस लड़की की आँखों में चमकते नीले समंदर को, उसके गहरे-भूरे बालों को, उसके सधे हुए नृत्य को। उसने अंदाजा लगाया… इसने जरूर विधिवत नृत्य सीखा होगा।

गीत फिर बदल गया था। वह लड़की ठीक उसकी सामनेवाली सीट पर आ बैठी थी। उसे हैरत हुई थी वह लड़की उसके ठीक सामने बैठी थी और उस पर उसकी नजर अब तक गई क्यों नहीं? नजर शायद गई भी हो, पर अटकी नहीं थी जैसे अब अटक रही है बार-बार। नृत्य करते हुए लोग उसे बहुत अच्छे लगते हैं, खास कर स्त्रियाँ। स्त्रियों के शरीर में एक खास तरह की लचक होती है, अकृत्रिम सी… जैसे पंख फैला कर नाचता हुअ मोर। सतरंगी पंखों का हरा रंग नाचते हुए उसके चेहरे को भी जैसे एक हरापन दे जाता है। ताजगी, स्फूर्ति और आनंद की वैसी ही मिली-जुली भावना अभी सामनेवाले की आँखों में थी।

…तरु दी जब-जब नाचतीं वह सब काम छोड़ कर उन तक दौड़ पड़ता। नाश्ता, होमवर्क यहाँ तक कि खेलना भी छोड़ कर। और उसके देखते-देखते ही जैसे वह कोई दूसरी हो जातीं। एक अद्भुत अपरूप रूप… तरु दी यूँ भी बहुत सुंदर थी। पर उस वक्त तो… वह अपलक देखता रहता उन्हें उस वक्त तक जब तक कि वे उसे टोक न दें… क्या है रे विशू… वह झेंप कर सिर झुका लेता या कि भाग खड़ा होता।

वह देखते-देखते नजरें चुरा ले रहा था। उसकी स्मृति में उभर रहा था बार-बार… ‘क्या है रे विशु…’ गोकि वह लड़की तरु दी से बहुत-बहुत छोटी थी, करीना कपूर से भी छोटी। तरु दी सिर्फ उससे ही बड़ी नहीं थी बल्कि तनु दी से भी। उस लड़की की उम्र तपू के बराबर की होगी, उसने अंदाज लगाया था… उसने गौर किया था सामनेवाले चेहरे और तनु दी के चेहरे में कोई सामंजस्य था लेकिन क्या…? तनु दी की जब शादी नहीं हुई थी या कि जब नाचती थीं वह, इसी लड़की की उम्र की रही होंगी।

उसने उधर से मन को हटाने की खातिर दूसरों को ध्यान से देखना शुरू किया था। उसने मन ही मन गिनती की थी साठ लोगों में तेइस स्त्रियाँ थी और शेष पुरुष। चौदह किशोर और एक दस साल की बच्ची… उसने फिर गौर किया, उन तेइस में से सिर्फ तेरह युवतियाँ थी और शेष युवती से अधेड़ होने के बीच की। इसी तरह पुरुष भी लगभग आधे युवा और आधे अधेड़ होने की सीमा रेखा पर। फिर भी सब की देह सधी हुई थी, लचक से भरी हुई।

वह फिर-फिर सोचता रहा यह बच्ची यहाँ क्या कर रही है, उसको तो कल किसी नृत्य में भी परफॉर्म करते नहीं देखा था फिर…

लड़की की बगलवाली सीट से उठ कर एक युवक नृत्य में शामिल हो गया था और उसकी बगलवाली कुर्सी खाली हो गई थी। उसने उसे थपथपा कर विश्वास को बुलाया था। उसे हैरत हुई थी कि स्त्रियाँ इस तरह कैसे समझ लेती हैं दूसरों के मन की बात। वह तो कब से चाह रहा था…

बैठते ही सतीश ने कैमरा उसकी तरफ मोड़ दिया था। शायद उसे लगा था वह उस लड़की का इंटरव्यू करने जा रहा है। उसने आदतन बातचीत की शुरुआत प्रश्नों से ही की थी और मन ही मन हँस पड़ा था अपनी इस आदत पर।

वह सतीश की गफलत पर उदास हुआ जा रहा था… वह सचमुच चाहता था और पूरे दिल से चाहता था कि इस प्रोग्राम का भी टेलीकास्ट हो… कि देख पाएँ लोग असली नायक-नायिकाओं का चेहरा… उन सब को जो आकाश छूने के सपनों को लेकर घर से निकले थे और जिंदगी की कंकड़ीली राहों ने जिनके तन को लहूलुहान कर दिया था फिर भी जिनका भरोसा जिंदगी पर था और जिनकी आँखों के अथाह समंदर ने अभी तक उठान लेना छोड़ा नहीं था… पर यह संभव नहीं था। वह जानता था कि वह ऐसा बिल्कुल नहीं कर सकता था चाह कर भी…

वह अपने घर परिवार का अकेला सहारा था, अकेला लड़का। पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के लगभग सवा दो साल के बाद उसने यह नौकरी पाई थी। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौड़ में कैसे और किस मुश्किल में, यह उसका मन ही जानता है वर्ना वह रेज्यूमें भेजते-भेजते और अपने लिखे-किए कामों को ले कर इंटरव्यू देते-देते परेशान हो चुका था। और हिम्मत टूटने हीवाली थी उसकी कि गिरीश भैया ने आगे बढ़ कर खुद उसकी मदद की थी। तुम कहो तो… फलाँ चैनल के सीईओ अपने ही शहर के हैं। अपने गप्पू मामा के चचेरे भाई… एक बार फोन कर के देखता हूँ…

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और सचमुच जैसे इस प्रस्ताव के साथ ही उसकी जिंदगी बदल गई थी। एकाएक जैसे भाग्य उसकी मुट्ठी में आ गया हो। तनु दी की शादी की बात लड़केवालों की ओर से ही चली थी। और तो और तपू के लिए भी रिश्ते आने लगे थे। गोकि तपू को अभी शादी नहीं करनी थी। अपने पैरों पर खड़ा होना था। पिता के पीएफ का पैसा जो ढाई सालों से अटका हुआ था वह भी निकल गया था अचानक। घर बहुत तेजी से बदलने लगा था…

लास बेगास की इस यात्रा के लिए तो कितने ही लोग आशा लगाए बैठे थे। अनुभा उससे कहती नीतिका ही जाएगी, बॉस की चहेती है। और फिर फिल्मों में उसकी थोड़ी-बहुत रुचि तो है ही, हाँ जानकारी भले ही कम हो। और जानकारियों को यहाँ कितना महत्व ही दिया जाता है। जानकारी तो कहीं से भी मिल सकती है। पर उसके जैसा खूबसूरत चेहरा… वह अनुभा की तकलीफ को समझता था। नीतिका उससे जूनियर थी।

बिग बॉस का फरमान उस दिन अचानक आया था – ‘इस बार का अवार्ड फंक्शन विश्वास कवर करेगा। वह यंग और एनर्जेटिक है और हमें भी फ्रेश और नए आइडियाज की जरूरत है। दूसरे चैनल्सवाले क्या कमाल कर रहे हैं। कल के आए रिपोर्टर आज ब्रांड हो चले हैं, कोई अपनी आवाज से, कोई स्टाइल से तो कोई कविताई से। और अपने विश्वास में यह सब है। उसकी चैलेंज लेने की कूबत तो हम पिछली बार देख ही चुके हैं। नीतिका बेचारी का चेहरा उतर गया था। सीनियर्स खिसियाने हो आए थे। पर उसने देखा था अनुभा बहुत खुश थी… पता नहीं उसके जाने से या कि नीतिका के न जाने से।

केबिन से निकलते ही अनुभा ने कहा था – ‘कैंटीन चलते हैं, यह खुशी तो सेलीब्रेट होनी ही चाहिए।’ और वह बाखुशी उसके साथ चल पड़ा था।

कॉफी का सिप लेते हुए अनुभा ने कहा था – ‘बॉस तो उसी दिन से तुम्हें पसंद करने लगे थे। मैंने भी उनसे कहा था विश्वास के भीतर एक आग है।’

उसके टोकते-टोकते अनुभा ने एक सिगरेट जला ली थी – ‘आज तो पी लेने दो यार मैंने तो खुद ही कंट्रोल करना शुरू कर दिया है।’ यहाँ कैफेटेरिया में जब भी वह किसी लड़की को सिगरेट पीते देखता है उसे तपू की याद हो आती है। एमबीए करने के बाद उसने भी तो नई-नई नौकरी शुरू की है। माँ बताती है देर रात आती है वह और आते ही बिना किसी से कुछ कहे-सुने सोने चली जाती है। स्वभाव में भी उसके काफी बदलाव आ गया है। माँ का डर उसके अंदर भी गड़ता है। वह सोचता है अक्सर अगर तपू ने भी इसी तरह आजादी के नाम पर सिगरेट के छल्ले उड़ाने शुरू कर दिए तो… यह सोचते ही उसके भीतर एक बेचैनी सी होने लगती है और वह अनुभा तो क्या जिस तिस को भी सिगरेट पीने से रोकता फिरता है।

उसने गौर किया था अनुभा सिगरेट की कस के साथ न जाने किस दुनिया में खोई हुई थी… ओह क्या वाइस ओवर किया था तुमने राखी-मीका चुंबन प्रकरण पर… यह प्रकरण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी को भी यह अधिकार नहीं की दूसरे की इच्छा या आजादी के साथ खिलवाड़ कर सके। स्त्री अगर वेश्या भी हो तो उसके साथ मनमानी करने का अधिकार संविधान हमें नहीं देता। उसे भी अपनी इच्छा से जीने का हक है, उसके भी अपने अधिकार हैं… अनुभा रुकी थी थोड़ी देर को… यार, ऐसे विचार और तर्क कहाँ से लाते हो तुम? स्त्रियों के पक्ष में इतनी बड़ी-बड़ी बातें जबकि मेरे सिगरेट पीने पर भी तुझे एतराज है। वह हँसी थी खिलखिल।

उसने माँ को फोन किया था। माँ ने आशीर्वादों से भर दिया था उसे। बहनें उमग पड़ी थीं। तनु दी ने तो नहीं पर तपू ने कहा था – वहाँ से सुंदर-सुंदर वेस्टर्न ड्रेसेज लाना। और मेक अप के सामानों की एक लंबी फेहरिस्त लिखा दी थी उसने जिसे न जाने किस अंग्रेजी पत्रिका से पढ़ कर नोट किया था। पिता फिर भी शांत-संयत ही थे। वे तभी से उससे कम बोलने लगे थे जब से उसने सिविल सर्विसेज की तैयारी छोड़ दी थी। तब से जब-तब वे भड़ांस निकालते रहते उस पर, माँ पर और कभी-कभार बहनों पर भी।

…पर अब घाव भरने लगे थे शायद… उसके नाम से काम जो बनने लगे थे। पर उनका दिल अब भी टीसता था कभी-कभी किसी पुराने घाव की तरह। माँ बतातीं वे दूसरों के सामने गर्व से उसका जिक्र करते थे पर उसके या घर के अन्य लोगों के सामने वही चुप्पी। उसने जब लास बेगास जाने की बात जब पिताजी से की, उन्होंने सुन लिया था बस हाँ-हूँ में।

वह बातचीत के बीच ही कहीं गुम हो गया था और सिद्धा पूरे धैर्य के साथ उसके लौट आने की प्रतीक्षा में थी। अगले ही क्षण वह लौट भी आया था अपने शरीर में, अपने दिमागी कुलाँचों से निकल कर और उसने सिद्धा से यूँ बातें करनी शुरू कर दी थी जैसे बीच में कोई व्यवधान आया ही न हो… ‘नृत्य कहीं सीखा है? इतनी तन्मयता और नृत्य के प्रति तुम्हारा यह अद्भुत राग, बिना सीखे तो आ ही नहीं सकता।’

‘हाँ पाँच साल तक भरतनाट्यम और दो साल तक कथक भी। बनारस की हूँ मैं और लच्छू महाराज के भतीजे…’ कहते-कहते उसने अपने कानों पर उँगलियाँ रख ली थी। ‘मेरे गुरु रहे हैं…’

‘और अभी?’

‘अभी सरोज खान के ग्रुप में हूँ।’

‘कभी हिरोइन बनने का खयाल मन में नहीं आया?’

वह हँसी थी, बहुत खुली और बेबाक हँसी। पर विश्वास को लगा था उसकी हँसी में मखौल जैसा भी कुछ है… शायद उसके सवाल का… शायद अपने सपनों का। वह रुकी थी क्षण भर को। बाहर देखती रही थी निस्सीम आकाश में फिर कहा था… ‘ये तारे बहुत सुंदर हैं न, कितने चमकीले और कितने निर्मल से… हर कोई चाहता है कि यह उसकी मुट्ठी में हो पर ऐसा हुआ है क्या?’

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वह जैसे समझ कर भी उसकी बात को समझना नहीं चाह रहा था। या कि अपनी पेशेगत वृत्ति के तहत कुरेद रहा था उसे… ‘तारे न मिले न सही पर अपने सपने तो होते हैं न। तुमने कभी नहीं चाहा…’

‘चाहा था। चाहा था तभी तो इतनी दूर चली आई थी घर से… रिटायर्ड पिता और बीमार माँ को छोड़ कर। और भरोसा भी बहुत था खुद पर। सोचती थी सब कुछ ठीक हो जाएगा और जल्दी ही बुला लूँगी सब को। रखूँगी अपने साथ। फिर…’

‘फिर क्या?’

‘यह सोचे हुए भी पूरे छह साल बीत गए… माँ इलाज के बगैर चल बसी और पिता माँ के और मेरे गम में।’

उसे हैरत हुई थी। ‘छह साल पहले? तब कितनी उम्र थी तुम्हारी?’

‘बीस की थी तब।’

उसकी सोच को धक्का लगा था। वह ठीक तरु दी की उम्र की थी पर दिखती नहीं थी बिल्कुल। तरु दी कहती थी विशू, नाचने वालों की उम्र थम जाती है कहीं बीच राह। उसे उनकी बात सच लग रही थी। उसने सोचा था और नाचना छोड़ देने पर… उसे एक खयाल आया था नाचती रहती तो क्या तरु दी भी ऐसी ही होती? ‘ऐसी ही’ के साथ एक दूसरा ख्याल भी मन में आ ही गया था पर उसने उसी पल सोचा पापा ने ठीक ही किया शादी कर दी उनकी… वर्ना वह भी तो वैजयंती माला, हेमा मालिनी और माधुरी दीक्षित की तरह डांसिंग स्टार होने का सपना पाले हुई थी। और किसी से न कहती हों पर उससे कहती एकांत में। शायद वह उनको सबसे प्यारा था इसलिए… शायद उसे बच्चा जान कर… ‘देखना विनय सर मुझे मुंबई ले जाएँगे और मैं…’

पर तरु दी का असमय मुर्झाया चेहरा खयालों में आ कर उसकी इस संतुष्टि को धो-पोंछ गया था। भले ही सिद्धा का कोई परिवार न हो पर उसकी कला तो है उसके साथ। उसके चेहरे पर एक आभा तो है। वह खुद तो बची हुई है इस संघर्ष में। वर्ना तरु दी तो खोई रहती हैं कहीं अपने में ही। बच्चे रिरियाएँ तो रिरियाएँ। ज्यादा रिरियाएँ तो थपरिया कर चल बनती हैं पैर पटकते हुए।

उसने बातों की डोर एक बार फिर वहीं से थामी थी। ‘तो तुमने कभी कोई फिल्म नहीं की?’

‘नहीं, एक फिल्म में हिरोइन थी मैं। छोटे बजट की फिल्म थी डिब्बा बंद हो कर रह गई। दूसरी तो पूरी बन भी नहीं पाई। और ‘इम्तहान’ में हिरोइन की सहेलियों में एक थी न मैं भी। आपने शायद देखी हो। हम सब की तो वही भूमिका है जैसे नाटकों में नेपथ्य… या फिर बेनाम चेहरे या कि फिर भीड़, जहाँ चाहो वहीं चिपका दो। उसने किसी हालिया फिल्म का नाम लिया था। उसमें जो हिरोइन पहाड़ी से गिरी थी वह मैं ही थी। चेहरा सिर्फ उस हिरोइन का था।’ उसने अपनी नीली साड़ी थोड़ी ऊपर खिसकाई थी। ‘यह जो बड़ा सा दाग आप देख रहे हैं न, जाल फट गई थी एक कोने से और मैं… तीन महीने तक तो प्लास्टर में बैठी रही।’

‘भाषण कर रहेली क्या?’ नाचने गया उसकी बगल की सीटवाला शख्स लौटा था और उसे अपनी सीट पर बैठा देख उसने खड़े-खड़े ही कहा था। ‘साहब, इसको जास्ती सिर नहीं चढ़ाना। नहीं तो बहुत-बहुत बोलती है। अपुन जानता है न यह क्योंकि अपुन ही तो झेलता है इसे…

…कलानगरी बनारस की सधी भाषा और संस्कारोंवाली सिद्धा और फिल्मी स्टाइलवाले हँसोड़ मोहन की जोड़ी उसे जँची नहीं थी, बिल्कुल भी नहीं। पर वह कर क्या सकता था, सिवाय सुनने के। सिद्धा स्वयं कह रही थी ‘वह और मोहन शादी करनेवाले हैं। मोहन को एक सीरियल में काम मिलनेवाला है जल्दी ही, फिर उसके बाद हम…’ उसने ठहर कर सोचा था यह जोड़ी नहीं जमनेवाली बात कहाँ से चल कर आ गई उसके दिमाग तक? पिता कहते थे तरु दी और विनय सर की जोड़ी बेमेल थी। और अनु के पापा की नजर में उसकी और अनुभा की जोड़ी। अनुभा फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है। दिल्ली की पली-बढ़ी है। रिटायर्ड आईएएस पिता की अकेली संतान। और कहाँ वह बिहार के एक छोटे से कस्बे में पला-बढ़ा पूरे परिवार का एकलौता आसरा। अनुभा कहती थी वह पिता को मना लेगी। पर उसे भरोसा नहीं होता। उसके इस भरोसा नहीं होने पर वह और चिढ़ती है। पर भरोसा कर के या नहीं करके वह क्या बदल सकता था। न अपना आप और न अनुभा का। जोड़ियों का संबंध मन से होता है न कि… वह अपने आप को तसल्ली देना चाहता था।

‘…और सिद्धा तो हिरोइन है सचमुच की। यह अकेली लड़की है अपुन लोगों के बीच में जिसने सचमुच में फिल्मों में हिरोइन का काम किया है। नहीं तो आती तो बहुत हैं। और फिर चक्कर काटते-काटते बूढ़ी… फिर मजदूरिनों का रोल करो या कि भिखमंगिनों का या फिर भीड़ में शामिल हो जाओ… पाँच सौ औरतें हैं हमारी बस्ती में जो कभी न कभी, कहीं न कहीं से हिरोइन बनने आई थीं पर… कृष्णम्मा भाजी बेचती है। सीता रानी ने पाव की दुकान खोल ली है और…’ वह विश्वास को ऐसी नजरों से देख रहा था जैसे उसे अपनी खुशनसीबी का गुमान हो और उसे भी जतला देना चाहता हो।

उसने सोचा मोहन उसे यह सब क्यों बता रहा है… क्या उसे सिद्धा के इतने करीब देख कर वह… डर भी प्यार का एक सच है… वह भी तो…

सामने अब भी नृत्य चल रहा था। देवदास फिल्म के गाने पर… ‘शीशे से शीशा टकराए जो भी हो अंजाम…’ उसे हैरत हो रही थी ये सब थकते नहीं क्या? सिद्धा ने नाचते हुए एक शख्स की तरफ इशारा किया था वह उसे पहचान ही पाता कि उसने कहा था… ‘हमारे जैकी दादा। कभी खूब फिल्में मिली इनको, खूब काम किया इन्होंने… पर अब जब जैकी श्राफ को ही कोई नहीं पूछता तो डुप्लीकेट…’

‘यहाँ डुप्लीकेटों की कमी नहीं है। हमारे चाल में ही पंद्रह डुप्लीकेट हैं। दिलीप कुमार, देवानंद से लेकर आज के शाहरुख, सलमान और आमिर तक के। बेचारे बूढ़े गए दिनों की कहानी हो चुके हैं। कहीं कोई मिमिक्री के लिए बुला ले तो बुला ले। कभी किसी रियलिटी शो में चले गए तो चले गए नहीं तो… बात का सिरा फिर मोहन ने थाम लिया था… पर नए तीनों की खूब पूछ है। सलमान ने तो बोरिवली में फ्लैट भी लेने का सोचा है। अभी वक्त है तो…’ विश्वास को मोहन का कंधे पर रखा दोस्ताना हाथ पता नहीं क्यों भा नहीं रहा था। उसने हौले से उसकी हाथों को हटाया था, कुछ इस अंदाज में कि उसे बुरा भी न लगे। और हटाने के क्रम में ही उसने गौर किया था और गौर कर के चौंक पड़ा था… ‘क्या देख रहे हो भाई साहब…? यही न कि मैं अक्षय कुमार की तरह लगता हूँ। पर नहीं भाईला मेरी किस्मत उतनी चमकदार नहीं। अपना अक्की भाई सारे स्टंट खुद ही करता है। नहीं तो अपुन भी… बस एक बार मैंने उसका काम किया था वह भी तब जब वह फॉरेन गया था। क्या मस्त हिरोइन थी उस फिल्म की। साथ में काम किया। पर भाव ही नहीं दे रहेली थी। डायरेक्टर के सामने भड़क पड़ी थी अंग्रेजी में। जूनियर-वूनियर जैसा कुछ कह रही थी। अपुन को भी ताव आ गया। अपुन ने भी कह दिया क्या जूनियर-जूनियर लगा रक्खे ली? जूनियर कलाकार इनसान नहीं होते हैं क्या? अरे जूनियर तो अपना अभिषेक भी है, जूनियर बच्चन। सनी पाजी भी, जूनियर धर्मेंद्र। तो हम हुए तो…’

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वह उसका हाथ पकड़ कर ले गया था एक बूढ़े के पास।’ ये साठ साल से इंडस्ट्री में जूनियर आर्टिस्ट हैं। इनका एक बेटा भी था जो अब नहीं रहा। एक फिल्म में आग में फँसे हीरो का सीन करने में मर गया जल कर… और ‘वह’ इनक पोता…’

बूढ़ा आर्टिस्ट उसे देखते ही शुरू हो गया था…’ पहले इज्जत थी। हीरो-हिरोइन नर्म दिल होते थे… पर अब तो…’

‘ये रमजान मियाँ हैं। दिलीप साहब अब भी खुद फोन करते हैं इन्हें…’ वह एक-एक कर के ले जा रहा था सब तक…। और सबकी कहानियाँ कहता-सुनवाता जा रहा था। सबके अपने दुख थे… अपने सुख…सबकी कहानियाँ जुदा-जुदा पर कहीं से जुड़ी हुई भी।

विश्वास उस तक आकर थम गया था। बच्ची सबसे ज्यादा खुश थी। उसकी आँखें खुशी से दमक रही थी। वह बार-बार अपना ऑटोग्राफ बुक खोल कर उस पन्ने को देख रही थी जिस पर कैटरीना कैफ ने ऑटोग्राफ दिया था उसे। ‘नीमा एक जूनियर आर्टिस्ट की बेटी जरूर है पर इसके सपने बड़े हैं। यह बड़ी हो कर कैटरीना कैफ जैसी बनना चाहती है। फिल्मों में काम करना चाहती है। इसके पिता ने कई बार कोशिश की… शूटिंग पर ले कर भी गए लेकिन कैटरीना से कभी मिलवा नहीं पाए… और इसकी वही हसरत पूरी करने इसे लास बेगास तक ले आए, अपनी सारी जमा पूँजी लगा कर… लाते भी क्यों नहीं तीन-तीन बेटों के मर जाने के बाद जन्मी यह बच्ची ही तो उनकी जिंदगी का एक मात्र मकसद है…’ विश्वास ने गौर किया मोहन अचानक संजीदा हो गया था… अपनी आवाज से… अपने व्यवहार से…। अपनी भाषा से भी…

उसने सोचा इस स्टोरी में वह सबसे पहले नीमा का चेहरा दिखाएगा… उसकी आशा और सपनों से भरी आँखें। फिर बूढ़े रमजान मियाँ का चेहरा… उनका वक्तव्य… फिर उसका वॉयस ओवर… सपनों से सूनी आँखें मुर्दा आँखें होती हैं और हर आँख का हक है कि वह कोई सपना पाले। इन आँखों ने भी एक सपना देखा था… फिल्म जगत के आकाश में सितारों की तरह जगमगाने का। यथार्थ की कंकड़ीली जमीन से टकरा कर इनके सपने भले चकनाचूर हो गए लेकिन जिंदगी से इनका भरोसा अब भी नहीं उठा है। और न ही इनकी आँखों के अथाह समंदर ने अभी उठान लेना ही बंद किया है।

विमान की खिड़की से उसने देखा एक चमकदार वस्तु निकल गई थी बहुत तेजी से ठीक उसके बगल से। वह कुछ समझता समझता उससे पहले ही नीमा ने अपनी उँगलियों से क्रॉस बनाया था… और देखते ही देखते सब की उँगलियाँ गुणा के चिह्न में तब्दील हो गई थी। उसके भीतर अपने कार्यक्रम का नाम कौंधा था – ‘टूटते तारे’… और न जाने क्या हुआ कि उसकी उँगलियाँ भी एक अनाम प्रार्थना में जुड़ गईं…

सूट की गई रॉ क्लीपींग्स को देखते हुए डिस्कसन रूम में उसका आइडिया सुन कर जब बिग बॉस ने तालियाँ बजाई उसका उत्साह दूना हो गया था। वह मन ही मन उभ-चुभ हो रहा था। उसने अनुभा को खोजा पर उसका केबिन उसे खाली दिखा। उसने आस पास नजर दौड़ाई पर वह कहीं नहीं थी। जाते वक्त अनु ने कहा था वह उसे सी ऑफ करने एयरपोर्ट चलेगी पर उसी रात तबीयत बिगड़ गई थी उसकी, वायरल हो गया था उसे। उसने फोन कर के उसे बताया था। उसके मन में एक अपराधबोध जागा था। काम की अफरा तफरी में उसने वहाँ से उसे एक बार भी फोन नहीं किया… उसे अनु से भी शिकायत हुई… वह भी तो फोन कर सकती थी उसे… शायद नाराज होगी उससे। वह शिखा के पास गया था। शिखा अनुभा की पक्की सहेली थी।

‘ शिखा, अनुभा आई नहीं क्या?’

‘आई तो है।’

‘दिख नहीं रही कहीं।’

‘बॉस के केबिन में होगी।’ शिखा की दृष्टि हमेशा की तरह थोड़ी वक्र हुई थी और उसके होंठ भी। ‘जब से तुम गए हो उसका ठिकाना वहीं तो है।’

उसने शिखा की ईर्ष्या भरी बातों पर हमेशा की तरह ध्यान नहीं दिया और उसे बीच में हीं अनसुनी कर के चलता बना था।

शिखा की बातों से उसे ध्यान आया कि एडिटिंग पूरी कर के बॉस ने उसे जल्दी बुलाया था…

काम पूरा करके वह बॉस की केबिन की तरफ बढ़ा। वह अभी नॉक करने को ही था कि उसके पाँव दरवाजे पर ही जम गए… ‘ये फुलिश आइडियाज सिर्फ उसी के हो सकते हैं सर। और आपने मान कैसे ली उसकी बात। दो कौड़ी के जूनियर आर्टिस्टों पर पूरी स्टोरी, वह भी प्राइम टाइम में… कौन देखेगा इसे… टीआरपी की तो बाट लगनी ही है… मेरी मानिए तो…।’ कुछ छन्न से गिर कर टूटा था उसकी हाथों से और छन्न से टूटने की यह आवाज उसके भीतर तक धँस गई थी।

अनुभा की आवाज पर विश्वास नहीं करना चाह रहा था वह… लेकिन वह अब भी बोल रही थी… एक घना अंधकार फैलता जा रहा था उसके चारों तरफ जिसमें गुम होते अपने वजूद को बचा लेना चाहता था वह…

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नेपथ्य – Nepathya

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