नशा | एकांत श्रीवास्तव
नशा | एकांत श्रीवास्तव

नशा | एकांत श्रीवास्तव

नशा | एकांत श्रीवास्तव

बचपन में माँ की दुलार का नशा
सूर्य के उगने और डूबने का
पीतल की जल भरी थाली में
चाँद के उतरने का नशा
नशा माँ के कच्चे गाढ़े दूध का
तितली का और फूल का नशा
गिरने और चलने का नशा
भाषा की भूल-भुलैया में भटकने का
पत्तों का, बूँदों का, कागज की नावों का नशा
नशा धूप का, परछाईं का

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बड़ा हुआ तो प्यार का नशा
जुल्फों का, आँखों का नशा
हजार पँखुड़ियों वाले फूल-सी खुलती
देह का नशा
हिंसा का, पैसे का नशा
जाति का, धर्म का

हुआ अधेड़ तो शोहरत का नशा
पद का, प्रतिष्ठा का
बुढ़ापे में गुरुत्व का नशा
नशा ‘यह किया-वह किया’ के संतोष का

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नशे में मैंने आँखें खोलीं
आँखें मूँदूँगा नशे में
कब रहा मैं होश में जन्म से मृत्यु तक!
मृत्यु के नशे पर भारी पड़ा जीवन का नशा।

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