मुझे भी प्यार की जरूरत थी | विमल चंद्र पांडेय
मुझे भी प्यार की जरूरत थी | विमल चंद्र पांडेय
प्यार कहीं भी होगा लेकिन हाथों में नहीं था
पर हम थे कि ऊँची हँसी हँसते
हाथ ही मिलाते थे सबसे पहले
दिल मिला कर मिलने के तरीके अभी ईजाद होने बाकी थे
मैं सबकी परवाह करता था
ये मेरी कोशिश नहीं मेरी आदत थी
दुनिया में गलत कोशिशों से ज्यादा मारती हैं गलत आदतें
सबका अघोषित काउंसलर बनाने में जितनी वक्त की गलती थी
उससे कहीं ज्यादा मेरी
मुझे मेरी उम्र से बड़ा माना जाता था
इसका खामियाजा ये कि मेरी माँ भी मेरे आँसू नहीं पोंछती थी
‘मेरा बेटा बहुत समझदार है’
ऐसा कह-कह कर माँ ने मेरे भीतर एक श्रेष्ठताबोध भरा
इस बात ने मुझे बहुत खुश किया
और मैंने माँ की गैरमौजूदगी में पूरा घर साफ किया, खाना बनाया और धो डाले सारे कपड़े
ऐसी घटनाओं के बाद उम्मीद की गई कि मैं कभी न थकता होऊँगा
न कभी अकेले में किसी के दुलार भरे स्पर्श की जरूरत होती होगी मुझे
जब भी थक कर रोना चाहा
याद आया कि बहुत मजबूत मानती है माँ मुझे
दोस्तों ने हमेशा मेरी ओर देखा अपनी समस्याओं के हल के लिए
मैं बिना कहे कूदता रहा दूसरों के अधिकारक्षेत्र में
बहुत सारे समाधान थे मेरे पास
इसी बात को अंतिम सच मानकर
कोई आगे नहीं आया मेरी परेशानियों में
मुझे उदास और गंभीर देखा जाना
टीवी पर क्रिकेट मैच के बीच आने वाले विज्ञापन जैसा था
हर बार बदला गया चैनल
दुबारा तभी वापस आए लोग जब क्रिकेट शुरू हो चुका था
तुमने कैसे जान लिया कि एक कमजोर बच्चा हूँ मैं
डरा-डरा सा
दुनिया को पी सी सरकार के जादू की तरह देखता सा
तुम्हारे सीने से लग के जब रोया तो पता चला
मुझे भी प्यार की बहुत जरूरत थी यार !