मदर डेयरी | मंगलेश डबराल

मदर डेयरी | मंगलेश डबराल

उन लाखों लाख लोगों में से कइयों को मैं जानता हूँ
जो बचपन में मदर डेयरी या अमूल का दूध पीकर बड़े हुए
और जिंदगी में जिन्होंने ठीक-ठाक काम किए
उनमें से कुछ और कहीं नहीं तो गृहस्थी की कला में ही हुए पारंगत
वे माँएँ भी मैंने देखी हैं जिनके स्तनों में दूध नहीं उतरता था
लेकिन वे कर ही लेती थीं अपने बच्चों के लिए
एक पैकेट दूध का जुगाड़
फिर मैंने पढ़ा वर्गीज कूरियन की बाबत
कैसे उन्होंने अतीत की दूध-दही की कहावती नदियों के बरक्स
दूध-दही की वास्तविक नदी निकाली गुजरात के आणंद में
बड़े से छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों तक से बूँद-बूँद दूध इकट्ठा करते हुए
निर्मित किया एक विशाल सहकार दूध का एक समुद्र
जिसे भरा जाता था दिन में दो बार
और दूध के लिए तरसते राज्य और देश को
दुनिया में सबसे ज्यादा दूध पैदा करनेवाले देश में बदल दिया
पहली बार भैंस के दूध से मक्खन-पनीर और बेबीफूड बनाना इसी का हिस्सा था
यह ‘श्वेत क्रांति’ अभी तक असंदिग्ध कामयाब बनी हुई है
हालाँकि उसकी लगभग सहजात पंजाब की ‘हरित क्रांति’ हो चुकी है विफल
लेकिन वर्गीज कूरियन शुरू से ही खटकते थे
तीसरी दुनिया के दूध पर कब्जा करनेवाले बहुराष्ट्रीय निगमों
और उनके देसी गुर्गों और उनके सरकारी आकाओं को
क्योंकि वे अपने आणंद को उनके साये से मुक्त रखते थे
सरकारी होने के बावजूद खुद को सरकारी नहीं ‘गरीब किसानों का नौकर’ कहते थे
और अपने जीवन काल में ही दंतकथा बन गए थे
पुरमजाक कूरियन को भी मजा आता था
नई से नई पूँजी के गुलाम नौकरशाहों नेताओं को चिढ़ाने में
कहते हैं एक आला प्रबंधन संस्थान के मुखिया ने उनसे कहा,
‘तो मिस्टर कूरियन, आप हमारे छात्रों को गाँवों में भेजकर उनसे भैंस दुहाना चाहेंगे?’
कूरियन ने उतने ही तंज से जवाब दिया,
‘नहीं, मैं चाहता हूँ कि वे अमेरिका जाएँ और सिगार पियें!’

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इस कामयाबी का राज था उनका सिद्धांत
कि ‘मनुष्य के विकास के संसाधन सौंपे जाने चाहिए मनुष्यों के हाथ’
और दूध हो या ग्रामीण प्रबंधन
उसके कर्ता-धर्ता खुद को मानते थे इन्हीं साधारण मनुष्यों के सेवक
इसीलिए श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंथन’ बन सकी
जिसके निर्माता लाखों दूधवाले किसान थे
जिन्होंने दो रुपये प्रति किसान देकर जुटाए फिल्म के लिए दस लाख
कूरियन की यह जीवन दृष्टि आला प्रबंधन के नौकरशाहों को नहीं आई रास
सियासतदानों को भी उन्होंने कर दिया था नाराज
जो सिर्फ अपने संभावित वोट बैंक की तरह देखते थे
आणंद के तीस लाख बीस हजार दूधवालों को
राज्य के सांप्रदायिक मुख्यमंत्री से भी उन्होंने मोल ले लिया था टकराव
और वही बना उनके निष्कासन की वजह
और जब 2012 में उनकी मृत्यु हुई तो न उन्हें राज्य का सम्मान मिला
न सांप्रदायिक मुख्यमंत्री श्रद्धांजलि देने आया
और न उनका नाम देश के सबसे बड़े सम्मान के लिए प्रस्तावित हुआ

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डॉ वर्गीज कूरियन,
तुम्हें कभी किसी सम्मान की दरकार नहीं रही
क्योंकि वह तुम्हें हर रोज मिलता था उन दूधियों से
जिनकी नियति तुमने बदल दी थी
कहते हैं तुम्हें दूध पसंद भी नहीं था तुमने कभी उसे पिया नहीं
लेकिन तुम्हारी जीवन कथा दूध जैसी धवल-तरल रही
डॉ कूरियन,
मेरी भी दूध पीने की उम्र बीत गई
लेकिन सुबह-सुबह दुकानों में आते दूध के पैकेटों को
अब भी कुछ हसरत से देखता हूँ
और तुम्हारा अमूल या मदर डेयरी का दही खाता हूँ चाव से
वह गाढ़ी निर्गंध स्वादिष्ट सफेदी चकित करती है स्वाद की इंद्रियों को
जब भी दिखाई देता है मेज पर रखा हुआ दूध का गिलास
या किसी गरीब बच्चे के हाथ में एक कटोरे में जरा सा दूध
तो तुम्हारा नाम याद आता है
वह कुचक्र याद आता है जिसने तुम्हें अमूल छोड़ने को विवश किया
और जब मैं एक चम्मच भर गाढ़ा दही मुँह में ले जाने को होता हूँ
तो सहसा एक उदासी घेर लेती है
और मैं अपनी आँखों में उमड़ते पानी को रोकने की कोशिश करता हूँ।

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