मिथ्या | नीरजा हेमेंद्र

मिथ्या | नीरजा हेमेंद्र

साँझ ढल रही है
धीरे धीरे धीरे।
पीली गेंद-सा सूरज
वृक्षों के पीछे गिर गया है
ईंट मजदूरों की बस्ती में
झोपड़ी से उठ रहा है धुआँ
पक रहे हैं सपने
अधनंगा बच्चा
मुर्गियों के पीछे
भागता है
श्वेदकणों से लथ-पथ युवक
दालान में फैली
लकड़ियों को समेट रहा है
समेट रहा है इच्छाएँ
ढीली चारपाई पर
बैठे हुए बूढ़े पिता के
झुर्रीदार चेहरे पर
चिपकी हुई
निस्तेज आँखें
मटमैले आसमान में
सपनों को ढूँढ़ रही है।

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