मंथन | मुकेश कुमार
मंथन | मुकेश कुमार

मंथन | मुकेश कुमार

मंथन | मुकेश कुमार

उसके उलझे बालों में
उँगलियाँ फिराते
वो सोच रहा था
अमेरिकी बूटों तले रौंदे जा रहे
इराक की व्यथा पर
ईरान की बेचारगी ने भी
उसे उद्विग्न कर रखा था

उसके अधरों को चूमते वक्त
उसे दिखाई दी आदिवासियों
के साथ मेधा पाटकर
लड़ती हुई नर्मदा के लिए
और अकेली वृंदा करात
जिस पर लाठियाँ बरसा रहा था
साधुओं का एक गिरोह

READ  घर में अकेली औरत के लिए | चंद्रकांत देवताले

वक्ष पर हाथ धरे
उसे याद आए
बेस्ट बेकरी, जाहिरा शेख,
बिल्किस बानो और तीस्ता सीतलवाड़

बहुत देर तक परेशान रहा वो
अमेरिका की अहमन्यता से
सरकार की अमेरिकापरस्ती से
और बहुराष्ट्रीय निगमों
के छल-कपटों से

दो अनावृत देह
और आवरणों से ढँके मन
संघर्ष करते रहे
एक-दूसरे से
देर तक
बहुत देर तक।

READ  अकाल के दृश्य | कमलेश

Leave a comment

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *