मैं समय की एक लंबी आह | कृष्णमोहन झा

मैं समय की एक लंबी आह | कृष्णमोहन झा

1 . 
मेरे देह-जल में 
इस तरह उधियाता हुआ नहीं 
नक्षत्रों की अलगनी पर 
दूर ही टँगा रहता आकाश 
तब कैसे कर पाता विश्वास 
कि दहकता सूर्य 
नदियों के आदिम आचरणों का संकलन है दरअसल 
देखकर जिसे 
झीलों का चेहरा चमक उठता है 
और भोर तक फैली हुई रात की लटें 
हवा में फहराने लगती हैं

भला कहाँ जान पाता 
कि यह 
जिसे हम नदी कहते हैं 
हमारे पुरखों के फावड़े से फूटती किरणों की 
तरल चादर है अविरल…

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तुम्हारे बिना इस जीवन को कहाँ पहचान पाता मैं! 
2 . 
अब यकीन नहीं होता 
कि तुम्हीं हो वह लड़की 
जिसकी आँख की पत्तियों से 
मेरे बचपन की स्मृतियाँ चूती थीं 
अब यह सोचना भी असंभव लगता है 
कि तुम्हारी राह देखता हुआ मैं ही था वह आदमी 
जिसकी उठी हुई बाँहों में खिलते थे 
अलग-अलग ॠतुओं के फूल! 
3 . 
जीवन में यह पहली बार घटित होगा 
जब वसंत 
टहनियों से उड़कर मेरी देह में समाने के बजाय 
मेरी नसों से फटकर समूचे वन में छा जाएगा। 
4 . 
जैसे घरौंदा बनाते बच्चे 
शाम को 
सबकुछ छोड़-छाड़कर घर लौट जाते हैं 
तुम भी लौट चुकी हो अपने संसार में 
और मैं इस खर-पतवार में 
कभी अधबने घर को देखता हूँ 
कभी खुद को 
और कभी दूर जाते पदचिह्नों को 
जो सूर्य के साथ डूब रहे हैं इस अंधकार में। 
5 . 
मैं जहाँ भी जाता हूँ 
समय की माँद में हिलता हुआ 
स्मृतियों का एक गाछ मिलता है 
जिसकी सरसराहट उसी में विलीन होती जाती है 
घुमड़ती हुई एक दुविधा मिलती है 
जिसे शाम कहकर निराकुल नहीं हुआ जा सकता 
ऊँघता हुआ एक खैर-बन दिखता है 
जिसे जीवन कहते हुए मन घबराता है।

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द्वितीया के चाँद की इस निरीह रोशनी के नीचे 
जबकि समूचा परिदृश्य 
किसी अदृश्य चलनी से झर रही धूल में 
धीरे-धीरे डूब रहा होता है 
एक स्थगित जीवन की ओट में मैं 
घायल जानवर की तरह लेट जाता हूँ। 
6 . 
अब मैं कह सकता हूँ 
कि जीवन में नहीं 
सिर्फ गल्प में अग्नि के बाद होती है बरखा 
जीवन में अग्नि के बाद उड़ती है राख 
केवल राख 
जिससे आँख बचाने की कोशिश करते हुए हम 
खुद से ही आँख चुराने का जतन करते रहते हैं…

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