मैं अकेला ही चला हूँ | रमेश दत्त गौतम

मैं अकेला ही चला हूँ | रमेश दत्त गौतम

मैं अकेला ही चला हूँ
साथ लेकर
बस हठीलापन।

एक जिद है बादलों को
बाँध कर लाऊँ
यहाँ तक
खोल दूँ जल के मुहाने
प्यास
फैली है जहाँ तक
धूप में झुलसा हुआ
फिर खिलखिलाए
नदी का यौवन।

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सामने जाकर
विषमताएं
समंदर से कहूँगा
मरुथलों में
हरित वसना
छंद, लिखकर ही रहूँगा
दर्प मेघों का
विखंडित कर
रचूँ मैं बरसता सावन।

अग्निगर्भा
प्रश्न प्रेषित कर चुका
|दरबार मे सब
स्वाति जैसे सीपियों को
व्योम से
उत्तर मिले अब
एक ही निश्चय
छुएँ अब दिन सुआपंखी
सभी का मन।

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